मऊगंज नगर परिषद: 'धक्का-तंत्र' के सहारे चल रही व्यवस्था, कर्मचारी तीन माह से वेतन विहीन Aajtak24 News

मऊगंज नगर परिषद: 'धक्का-तंत्र' के सहारे चल रही व्यवस्था, कर्मचारी तीन माह से वेतन विहीन Aajtak24 News

मऊगंज - मऊगंज नगर परिषद में आजकल कार्यप्रणाली कम, बल्कि 'धक्का-तंत्र' ज़्यादा तेज़ी से काम कर रहा है। यहां की व्यवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो शासन-प्रशासन का हर काम किसी न किसी बड़े धक्के का मोहताज है। यह 'धक्का' कहीं कार्यालय पर खड़े ऑटो को लगता है, तो कहीं कर्मचारियों के सब्र को। विडंबना देखिए, नगर परिषद के वाहन को चालू करने के लिए जिस तरह जोर लगाकर धक्का दिया जाता है, वही शैली पूरी परिषद की कार्यप्रणाली की सटीक तस्वीर बन चुकी है—धक्का लगाओ, व्यवस्था चलाओ!

तीन माह से वेतन नहीं, खाली पेट कैसे लगे झाड़ू?

नगर परिषद के दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी इस 'धक्का-तंत्र' के सबसे बड़े पीड़ित हैं। उनकी मानें तो उन्हें पिछले तीन महीनों से वेतन नहीं मिला है। कर्मचारी पूछ रहे हैं कि जब पेट खाली हो तो झाड़ू कैसे लगे और जब जेब में पैसे न हों तो शहर की नाली कैसे साफ़ हो? ऐसा लगता है जैसे नगर परिषद यह मान बैठी है कि उसके कर्मचारी भौतिक आवश्यकताओं से परे हैं और केवल हवा-पानी, और अधिकारियों के 'आश्वासनों' पर ही जीवित रह सकते हैं। ज़ाहिर है, जब कर्मियों को मूलभूत वेतन नहीं मिल रहा, तो सफाई जैसे महत्वपूर्ण कार्य धक्के से ही चलेंगे।

 अलाव सिर्फ फाइलों में प्रज्वलित!

ठंड अपने पूरे शबाब पर है, लेकिन नगर के चौक-चौराहों पर जनता के लिए अलाव सिर्फ काग़ज़ों में ही जल रहे हैं। ज़मीनी हकीकत यह है कि ठिठुरती जनता को न तो शीत लहर से राहत मिली है और न ही कहीं अलाव की गर्माहट। व्यंग्य यह है कि व्यवस्था की 'गर्माहट' बनाए रखने के लिए फाइलों में ज़रूर 'अलाव प्रज्वलित' होने की मुहर लग चुकी होगी—ताकि काग़ज़ी कार्रवाई में कोई कमी न रहे, भले ही जनता ठंडी हवा में कांपती रहे।

कचरा मुस्कुरा रहा है, नालियाँ सुना रही हैं बदहाली की कहानी

स्वच्छता की व्यवस्था तो मऊगंज नगर परिषद के शब्दकोश से ही गायब हो चुकी है। शहर की हर सड़क पर कचरा 'मुस्कुरा' रहा है, और नालियाँ अपनी बदहाली की कहानी खुद बयां कर रही हैं। ऐसा लगता है कि जिम्मेदार अधिकारी इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि गंदगी और अव्यवस्था अब शहर की 'पहचान' बन चुकी है। नगर परिषद की कार्यशैली को देखकर स्पष्ट है कि यहां योजनाएं 'चलती' नहीं, बल्कि 'धकेली' जाती हैं। कर्मचारी हों, वाहन हों या मूलभूत संसाधन—सब कुछ जैसे-तैसे के सहारे चल रहा है। अब मऊगंज की जनता सवाल कर रही है कि क्या इस पूरी 'धक्के से चलती व्यवस्था' को पटरी पर लाने के लिए किसी बड़े प्रशासनिक धक्के की ज़रूरत है, या फिर यह यूं ही चलता रहेगा?



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