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मौत के बाद की मुस्तैदी, औचक निरीक्षण की औपचारिक पटकथा Aajtak24 News |
रीवा - छिंदवाड़ा की 11 मासूम लाशें जब एक- एक कर श्मशान की ओर बढ़ रही थीं, तब शासन- प्रशासन की नींद खुली। यह वही नींद थी जो तब तक मीठी थी, जब तक किसी माँ की कोख सूनी नहीं हुई थी। जैसे ही कफ सिरप के घूंटों ने बच्चों की साँसें निगल लीं, वैसे ही सक्रियता के नाम पर शासन ने वही पुराना नाटक शुरू कर दिया- औचक निरीक्षण। प्रदेश की नौकरशाही ने फिर वही पटकथा दोहराई- कुछ दुकानें सील, कुछ फोटो क्लिक, कुछ हस्ताक्षर, और कैमरे के सामने संवेदना का अभिनय। बयान भी वही, लहजा भी वही- हम तो पहले से निरीक्षण करते हैं। पर सच्चाई यह है कि जब तक मौतें दस्तक नहीं देतीं, तब तक निरीक्षण भी निद्रा में होता है।
रीवा जिले भर में हर जगह फार्मासिस्टों के नाम केवल बोर्डों पर दर्ज हैं। जिन दुकानों में दवाएँ बिकती हैं, वहाँ फार्मेसी नहीं, फरेबी खड़े हैं- दसवीं-बारहवीं फेल युवा, जो अपने बेरोज़गारी के बदले दूसरों की जान बेचने का धंधा कर रहे हैं। यह प्रशासन की नहीं, हमारी मानवीय संवेदना की शवयात्रा है। पैथोलॉजी सेंटरों की हालत तो और भी भयावह है- एक डॉक्टर जांच में पाँच- छ: जगह सिग्नेचर कर रहा है, और रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं वे लोग जिन्हें खून और पानी का अंतर भी ठीक से समझ नहीं आता। यह लैब टेस्ट नहीं, मृत्यु का अग्रलेख तैयार करने का उद्योग है। लेकिन कार्यवाही? हर बार वही जांच के आदेश जारी और टीम गठित की रस्म।
जिले का औषधि नियंत्रण विभाग अब नियामक नहीं, प्रतिक्रियात्मक हो चुका है। जब तक त्रासदी नहीं होती, फाइलें धूल खाती रहती हैं, और जैसे ही कोई मरता है, सरकारी सक्रियता प्रेस विज्ञप्ति में दर्ज हो जाती है। यह प्रशासन नहीं, कफ सिरप के घूंटों में डूबा हुआ अंत:करण है। रीवा के संजय गांधी अस्पताल का नाम सुनकर कभी गर्व होता था। डॉक्टर टी.एस. त्रिपाठी, डॉक्टर एमके जैन, डॉक्टर भसावड़ा, डॉक्टर आर जी सिंह, डॉक्टर गुलाटी, डॉक्टर खनीजो, डॉक्टर सुभाष जकारिया जैसे नाम चिकित्सा को सेवा का पर्याय बनाते थे। तब डॉक्टरों की शपथ दिल से ली जाती थी, और स्टेथोस्कोप में धड़कते इंसान की आवाज़ सुनी जाती थी। पर आज की रीवा से नागपुर जाने वाली हर ट्रेन, हर एम्बुलेंस यह कहती है यहाँ इलाज नहीं, केवल रेफरेंस मिलते हैं। डिग्रियों का ढेर है, लेकिन संवेदना का अकाल है।
उपमुख्यमंत्री राजेन्द्र शुक्ल जब नागपुर जाकर पीड़ितों से हालचाल पूछते हैं, तो वह दृश्य सहानुभूति नहीं, प्रतीक है- उस प्रशासनिक विफलता का, जिसने मध्यप्रदेश के अस्पतालों को रेफरल पॉइंट बना दिया है। नागपुर अब उपचार का शहर नहीं, मध्यप्रदेश की चिकित्सा व्यवस्था की कब्रगाह बन गया है। मरीज नहीं जाते, हमारी असंवेदनशीलता के शव वहाँ ले जाए जाते हैं। “औचक” को “सार्थक” बनाना ही उपचार है, हर मौत के बाद औचक निरीक्षण की औपचारिकता निभाना प्रशासन की आदत बन चुकी है। जैसे कोई पुरानी स्क्रिप्ट है- बस नाम और तारीख बदल जाती है। अब वक्त है कि यह औचक निरीक्षण संवेदनशीलता की जागृति बने, न कि “पोस्टरबाज़ी” का उपकरण। क्योंकि जनता को अब रिपोर्ट नहीं चाहिए- जवाबदेही चाहिए। मृत्यु के आँकड़े नहीं, जीवित विवेक चाहिए। और शासन को अब चाहिए केवल निरीक्षण नहीं, आत्मनिरीक्षण। जहाँ इलाज आयोजन बन जाए, और संवेदना प्रोटोकॉल, वहाँ मौतें नहीं होतीं, बस व्यवस्थाएँ मरती हैं हर रोज़।