'मोनू' और 'मोनू' का अजब खेल: 'साहब' के संरक्षण में चल रहा 9 लाख रुपये महीने का रेत का काला कारोबार karobar Aajtak24 News

'मोनू' और 'मोनू' का अजब खेल: 'साहब' के संरक्षण में चल रहा 9 लाख रुपये महीने का रेत का काला कारोबार karobar Aajtak24 News

शहडोल/मध्य प्रदेश - चंबल की बदनाम घाटियों की तर्ज पर अब मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में भी रेत माफिया का आतंक सिर चढ़कर बोल रहा है। गोहपारू थाना क्षेत्र के खरबना और खैरी गाँव रेत के अवैध उत्खनन का गढ़ बन गए हैं, जहाँ कानून और पुलिस का राज नहीं, बल्कि बेखौफ माफियाओं का खौफ चलता है। यह कोई आम अपराध नहीं, बल्कि एक संगठित आपराधिक सिंडिकेट है, जिसे स्थानीय पुलिस और प्रभावशाली "साहबों" का खुला संरक्षण मिला हुआ है। ग्रामीणों की मानें तो इस अवैध धंधे से प्रतिदिन 30 से 40 हजार रुपये की वसूली होती है, जो मासिक 9 लाख रुपये तक पहुँच जाती है। यह मोटी रकम सरकारी तंत्र की आंखें बंद रखने का एक सीधा कारण बनती है।

ग्रामीणों की आपबीती: "डर के साए में जीते हैं, कोई नहीं सुनता"

खरबना और खैरी के ग्रामीण डर और दहशत के माहौल में जी रहे हैं। शाम 6-7 बजे से लेकर अगले दिन दोपहर 2 बजे तक तेज रफ्तार रेत से भरे ट्रैक्टरों का बेखौफ काफिला गाँव की कच्ची सड़कों पर दौड़ता है। ये ट्रैक्टर इतनी तेज गति से चलते हैं कि ग्रामीण अपने घरों से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं कर पाते। बुजुर्ग हों या बच्चे, हर कोई इस जानलेवा रफ्तार से डरा हुआ है। बीते कुछ महीनों में इन बेलगाम ट्रैक्टरों ने चार बैल और एक भैंस को रौंद दिया, और हर बार की तरह मामला दबा दिया गया। ग्रामीणों का कहना है कि उन्होंने कई बार "100 डायल" को फोन किया, लेकिन पुलिस कभी मौके पर नहीं पहुँची। उनके अनुसार, प्रति ट्रैक्टर 2500 से 3000 रुपये की वसूली होती है, जो सीधे-सीधे पुलिस और कुछ प्रभावशाली लोगों की जेब में जाती है। महिलाओं और बच्चों के लिए तो यह पूरी रात दुःस्वप्न जैसी होती है, क्योंकि तेज हॉर्न और इंजनों की गड़गड़ाहट से उनकी नींद हराम हो जाती है।

डीएफओ की टीम पर हमला: जब कानून ही कमजोर पड़ जाए

ग्रामीणों ने जब पुलिस से न्याय की उम्मीद छोड़ दी, तो उन्होंने अपनी आखिरी आस के तौर पर वन विभाग का दरवाजा खटखटाया। दक्षिण वन मंडल अधिकारी (डीएफओ) श्रद्धा पेंड्रो, जो अपनी सख्त कार्रवाई के लिए जानी जाती हैं, ने ग्रामीणों की गुहार सुनकर खुद मोर्चा संभाला। लगभग 20 दिन पहले वह अपनी टीम के साथ खरबना गाँव पहुँचीं। उनकी टीम ने अवैध खनन के खिलाफ कार्रवाई शुरू की, लेकिन माफियाओं ने उन पर हमला करने की कोशिश की। डीएफओ ने तुरंत स्थानीय पुलिस को बुलाया, लेकिन घंटों तक इंतजार के बाद भी पुलिस मौके पर नहीं पहुँची। आखिरकार, वन विभाग की टीम को बिना किसी ठोस कार्रवाई के वापस लौटना पड़ा। इस घटना के बाद डीएफओ के एक सहयोगी ने गोहपारू थाने में एफआईआर भी दर्ज कराई, लेकिन वह भी ठंडे बस्ते में डाल दी गई। हाल ही में, एक डिप्टी रेंजर को भी रेत माफिया ने धमकी दी है। ये घटनाएँ साफ दर्शाती हैं कि माफिया इतने निडर हैं कि वे सरकारी अधिकारियों को भी धमकाने से नहीं डरते और उन्हें स्थानीय पुलिस का संरक्षण भी मिलता है।

'मोनू' और 'मोनू' का 'मैनेजमेंट': दो युवा चला रहे हैं पूरा कारोबार

इस अवैध कारोबार के पीछे किसी बड़े माफिया सरगना का नाम नहीं, बल्कि दो युवा चेहरे हैं, जिन्हें ग्रामीण 'मोनू' और 'मोनू' के नाम से जानते हैं। ये दोनों ही इस सिंडिकेट के कर्ता-धर्ता बताए जा रहे हैं। ग्रामीणों के अनुसार, एक मोनू एक जिम्मेदार "साहब" का ड्राइवर है। वह अपनी मोटरसाइकिल से खुद खदान पर जाकर ट्रैक्टरों की निकासी की निगरानी करता है और प्रति ट्रैक्टर से 2500 से 3000 रुपये की वसूली करता है। यह वसूली की गई राशि वह दूसरे मोनू तक पहुँचाता है, जो "पुलिसिया मैनेजमेंट" और अन्य विभागों को संभालने का काम करता है। दूसरा मोनू इस राशि से अपने हिस्से की कटौती करने के बाद बची हुई रकम को "आका" तक पहुँचाता है। यह पूरी व्यवस्था इतनी संगठित है कि एक मोनू खदान का संचालन और रेत की निकासी संभालता है, जबकि दूसरा बाहरी दुनिया से, यानी पुलिस और अन्य सरकारी विभागों से, "डील" करता है। ग्रामीण बताते हैं कि इस गोरखधंधे की जानकारी गाँव में लगभग हर किसी को है, लेकिन किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वह आवाज उठा सके।

मौजूदा कानून व्यवस्था पर सवालिया निशान

यह पूरा मामला शहडोल में कानून व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करता है। खनिज अधिकारी राहुल शांडिल्य ने इस मुद्दे पर अनभिज्ञता जाहिर की और कहा कि जानकारी मिलने पर पुलिस और वन विभाग की संयुक्त टीम के साथ कार्रवाई की जाएगी। हालांकि, डीएफओ के बयान से यह साफ है कि पुलिस सहयोग नहीं करती। गोहपारू थाना प्रभारी से संपर्क करने का प्रयास भी असफल रहा। यह स्थिति दर्शाती है कि कहीं न कहीं तंत्र के भीतर ही इस अवैध कारोबार को बढ़ावा दिया जा रहा है। प्रतिदिन की 30 से 40 हजार रुपये की कमाई का सीधा मतलब है कि यह धंधा किसी एक माफिया की उपज नहीं, बल्कि एक पूरी श्रृंखला है जिसमें कई "जिम्मेदार" लोग शामिल हैं। मानसून के चार महीनों में, जब वैध खदानें बंद होती हैं, यह काला खेल अपने चरम पर पहुँच जाता है, क्योंकि रेत की मांग और कीमत दोनों बढ़ जाती हैं।

ग्रामीणों की बेबसी: "हमारी बात अधिकारियों तक पहुँचाएँ"

हमारी टीम द्वारा गाँव के आसपास की गई जाँच के दौरान, ग्रामीणों ने हमसे संपर्क किया और मदद की गुहार लगाई। उन्होंने डरते-डरते हमें बताया कि वे इस अवैध खनन और जानलेवा रफ्तार से इतने परेशान हैं कि अब तो बच्चों का स्कूल जाना और उनका खुद का रोजमर्रा का काम भी प्रभावित होने लगा है। उन्होंने हमें आगाह भी किया कि फोटो-वीडियो बनाने के लिए गाँव में आना खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि वन विभाग की टीम पर भी हमला करने की कोशिश की गई थी। ग्रामीणों ने नाम न बताने की शर्त पर कई चौंकाने वाले खुलासे किए, जिनका सार यह था कि इस खदान का संचालन किसी बड़े माफिया सरगना के बजाय, दो कथित जिम्मेदार युवकों 'मोनू' और 'मोनू' द्वारा किया जाता है। उनकी 'भूख' और 'साहब' की 'कुर्सी का मोह' ही इस काले कारोबार को चला रहा है।

अगले अंक में हम इस मामले से जुड़े वीडियो और ऑडियो साक्ष्य प्रस्तुत करेंगे, जो इस अवैध खेल को बेनकाब करने में मदद करेंगे। क्या प्रशासन इस खुलासे के बाद कोई ठोस कदम उठाएगा, या यह मामला भी पिछली शिकायतों की तरह ठंडे बस्ते में चला जाएगा? यह सवाल अब भी कायम है।

Post a Comment

Previous Post Next Post