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मऊगंज से डिजिटल विद्रोह की दस्तक: संतोष कोल की फेसबुक पोस्ट ने गडरा कांड की याद दिलाई dilai Aajtak24 News |
मऊगंज - रीवा संभाग के मऊगंज से एक बार फिर आदिवासी असंतोष की चिंगारी सोशल मीडिया पर धधक उठी है। भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के पूर्व महामंत्री और वर्तमान पार्षद प्रतिनिधि संतोष कोल की भड़काऊ फेसबुक पोस्टों ने न सिर्फ प्रशासन की नींद उड़ा दी है, बल्कि गडरा कांड जैसी वीभत्स त्रासदी की पुनरावृत्ति की आशंका भी गहरा दी है।
पुलिस को खुली चुनौती: "मारेंगे तो उठकर थाने तक नहीं पहुंच पाओगे"
संतोष कोल ने सोशल मीडिया पर स्पष्ट शब्दों में पुलिस को ललकारते हुए लिखा, “खुली चुनौती है पुलिस वालों... हम आदिवासी हैं, मारेंगे तो उठकर थाने तक नहीं पहुंच पाओगे।” इस एक वाक्य ने मऊगंज की कानून व्यवस्था की जड़ों को झकझोर कर रख दिया है। यह पोस्ट पुलिस और स्थानीय प्रशासन के लिए एक गंभीर चेतावनी मानी जा रही है।
गडरा की राख से उठी चेतावनी की लपटें
15 मार्च को घटित गडरा कांड आज भी प्रशासन की सबसे काली यादों में दर्ज है, जिसमें भीड़ ने पुलिसकर्मियों को बंधक बनाकर एक एएसआई की पत्थर पटक कर निर्मम हत्या कर दी थी। इस हिंसा में तहसीलदार घायल हुए, पूरा गाँव छावनी में तब्दील हो गया और महीनों तक पुलिस तैनाती बनी रही। इसी गडरा कांड का हवाला देते हुए संतोष कोल ने दावा किया कि उस हत्याकांड के आरोपी उनके रिश्तेदार हैं और “ऐसी घटना फिर दोहराई जा सकती है, इस पर संदेह मत करना।” यह बयान गडरा कांड के घावों को फिर से कुरेदता है और क्षेत्र में तनाव बढ़ा रहा है।
"क्या आदिवासी होना अपराध है?"
अपनी लंबी फेसबुक पोस्ट में संतोष कोल ने एक निजी प्रकरण का उल्लेख करते हुए कहा कि उनकी पार्षद पत्नी को एक व्यक्ति लगातार अपशब्द कह रहा था। उन्होंने 45 बार डायल 100 पर कॉल किया, पर कोई पुलिसकर्मी नहीं पहुँचा। हनुमना थाना प्रभारी से लेकर नगर अध्यक्ष तक को उन्होंने सूचित किया, लेकिन सहायता नहीं मिली। इसी उपेक्षा से आहत होकर उन्होंने सोशल मीडिया पर अपना आक्रोश व्यक्त किया। उनकी पीड़ा भरे शब्दों में छलका: “क्या मेरा कोल समाज से होना मेरा अपराध बन गया है? क्या पुलिस तब ही पहुँचती, जब मैं ठाकुर होता?” यह टिप्पणी आदिवासी समुदाय में व्याप्त भेदभाव और उपेक्षा की भावना को दर्शाती है।
फेसबुक पोस्ट या 'सामाजिक विस्फोट'?
संतोष कोल की पोस्टों में एक के बाद एक गंभीर और भड़काऊ बातें लिखी गईं:
“अब आदिवासी पुलिस वालों को चुन-चुनकर मारें।”
“हम आदिवासी हैं, मजबूरी में पुलिस वालों को मारना पड़ता है।”
“पुलिस शराब पीकर सो रही थी, हम घर में बंद थे और पत्नी को गालियाँ दी जा रही थीं।”
इन वक्तव्यों ने सिर्फ आक्रोश नहीं उबारा, बल्कि आदिवासी समुदाय में वर्षों से उपेक्षा की पीड़ा को पुनः मुखर कर दिया। ये पोस्टें एक संभावित सामाजिक विस्फोट की ओर इशारा कर रही हैं, जहाँ समुदाय का गुस्सा डिजिटल माध्यम से सामने आ रहा है।
राजनीति और प्रतिशोध का घालमेल
संतोष कोल की राजनीतिक पृष्ठभूमि भी इस मामले को और जटिल बनाती है। वे तीन बार पार्षद चुनाव लड़ चुके हैं, और उनकी पत्नी वार्ड 7 की मौजूदा पार्षद हैं। वे 2019 से 2024 तक भाजपा में महामंत्री भी रहे। एक कथित जुआ कांड के चलते पार्टी ने उन्हें हटाया, लेकिन स्थानीय आदिवासी राजनीति में उनकी पकड़ अब भी प्रभावशाली है।
गौरतलब है कि गडरा कांड में मारे गए अशोक कोल उनके समधी थे। उस हत्याकांड में मुख्य आरोप सनी द्विवेदी पर था, जिसे बाद में भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला था। ऐसे में संतोष कोल की हालिया पोस्ट को न केवल सामाजिक आक्रोश, बल्कि व्यक्तिगत प्रतिशोध और अपनी राजनीति चमकाने के रूप में भी देखा जा रहा है।
भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता और पदाधिकारी पर वर्तमान समय पर सत्ता का नशा दिखने लगा है। चाहे रीवा में चोरहटा थाने का मामला हो या मऊगंज का, दोनों जगह भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता और पदाधिकारी जिस तरह से पुलिस को धमकियाँ दे रहे हैं, वह शायद 'रामराज्य की असली स्थापना' दिखने लगी है, जो जनमानस में चर्चा का विषय बनी हुई है। आखिर पुलिस तो सभी जाति, धर्म और प्रदेश की सुरक्षा का प्रमुख अंग होता है। यदि पुलिस गलत कार्य करती है, तो प्रशासनिक कार्यवाही करना चाहिए, किंतु सत्ता की धौंस दिखाकर जिस तरह से पुलिस को धमकियाँ दी जा रही हैं, वह काफी चिंताजनक है और कानून के राज पर सवाल उठाती है।