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94 साल बाद जातीय जनगणना की राह खुली, सामाजिक न्याय की नई उम्मीद या राजनीतिक दांव? dav Aajtak24 News |
नई दिल्ली - भारतीय राजनीति और समाज के लिए एक ऐतिहासिक मोड़ पर, केंद्र सरकार ने 94 साल के लंबे अंतराल के बाद जातीय जनगणना कराने की मंजूरी दे दी है। यह निर्णय न केवल देश की सामाजिक संरचना को समझने के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि आने वाले समय में राजनीतिक और सामाजिक नीतियों को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है। इस कदम ने देश में एक नई बहस को जन्म दिया है - क्या यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है, या सिर्फ एक राजनीतिक दांव?
ऐतिहासिक संदर्भ:
भारत में अंतिम बार जातीय जनगणना 1931 में हुई थी। इसके बाद, दशकों तक, जनगणना तो नियमित रूप से होती रही, लेकिन जाति के आधार पर आंकड़े नहीं जुटाए गए। 1941 में जरूर जातिगत आंकड़े एकत्र किए गए थे, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया। आजादी के बाद, 1951 से लेकर अब तक, केवल अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) की गिनती होती रही, जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और सामान्य वर्ग की जातियों का विवरण शामिल नहीं किया गया।
आजादी के बाद जातीय जनगणना क्यों रोकी गई?:
आजादी के समय, देश धार्मिक आधार पर विभाजित हो चुका था। ऐसे में, सरकार ने सामाजिक एकता बनाए रखने के लिए जातिगत जनगणना को रोकने का निर्णय लिया। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इसे ब्रिटिश नीति का 'समाज तोड़ने वाला औजार' बताया और इसे खारिज कर दिया। यह नीति आगे चलकर भारतीय प्रशासन की परंपरा बन गई।
विपक्ष का दबाव और राज्यों की पहल:
हाल के वर्षों में, बिहार, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों ने अपने स्तर पर जातिगत सर्वेक्षण कराए और आंकड़े सार्वजनिक किए। हालांकि, ये सर्वेक्षण तकनीकी रूप से 'जनगणना' नहीं थे, लेकिन इनका राजनीतिक प्रभाव महत्वपूर्ण रहा। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) जैसे विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर जातिगत जनगणना कराने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। राहुल गांधी ने इसे अपने अभियान का प्रमुख हिस्सा बनाया और भाजपा तथा मोदी सरकार को ओबीसी और दलित विरोधी बताया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कुछ संकेतों ने भी माहौल को बदला।
मोदी सरकार का यू-टर्न:
2021 तक, मोदी सरकार ने स्पष्ट कर दिया था कि वे ओबीसी या अन्य जातियों की गिनती नहीं करेंगे। सरकार ने अदालतों और संसद में इसे प्रशासनिक रूप से जटिल और महंगा बताया था। लेकिन बिहार और अन्य राज्यों के जातिगत सर्वेक्षण, विपक्ष का राजनीतिक दबाव और आरएसएस के संकेतों के बाद सरकार का रुख बदल गया। अंततः, 2025 में कैबिनेट कमेटी ऑन पार्लियामेंट्री अफेयर्स (सीसीपीए) की बैठक में, प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में जातीय जनगणना को मंजूरी दी गई।
जातीय जनगणना का महत्व:
जनगणना का उद्देश्य देश की जनसंख्या की सही संख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को जानना है। जातिगत विवरण जोड़ने से यह समझना आसान होगा कि कौन सी जाति किस सामाजिक और आर्थिक स्तर पर है। इससे नीतियों और योजनाओं को अधिक न्यायसंगत तरीके से बनाया जा सकता है। जातिगत जनगणना से यह स्पष्ट होगा कि ओबीसी, दलित, सामान्य और अन्य जातियों की शिक्षा, रोजगार, आय और अवसरों के स्तर पर वास्तविक स्थिति क्या है।
आगे की चुनौतियाँ:
केंद्र सरकार ने निर्णय तो ले लिया है, लेकिन अभी तक जातीय जनगणना की तारीख तय नहीं हुई है। इस प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में संसाधन, तैयारी और राजनीतिक सहमति की आवश्यकता होगी। यह भी देखना बाकी है कि आंकड़े कब और कैसे सार्वजनिक किए जाएंगे। इसके अलावा, डेटा की सटीकता और विश्वसनीयता भी एक बड़ी चुनौती होगी।
राजनीतिक निहितार्थ:
विपक्षी दलों ने इस मुद्दे को लेकर राजनीतिक माहौल बनाया है। उनका मानना है कि जातिगत जनगणना से सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया जा सकता है। हालांकि, सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि यह प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी हो। आने वाले चुनावों में यह मुद्दा एक महत्वपूर्ण राजनीतिक हथियार बन सकता है।
सामाजिक प्रभाव:
जातीय जनगणना से देश की सामाजिक संरचना को समझने में मदद मिलेगी। इससे उन समुदायों की पहचान करना आसान होगा जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। यह जानकारी सरकार को नीतियों और योजनाओं को अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने में मदद करेगी।
94 साल बाद जातिगत जनगणना का रास्ता साफ होना एक ऐतिहासिक निर्णय है। यह कदम सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा बदलाव ला सकता है, बशर्ते इसे निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ लागू किया जाए। यह केवल एक गणना नहीं है, बल्कि भारत की सामाजिक तस्वीर को समझने की एक नई शुरुआत है। इस निर्णय से देश की सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण परिवर्तन आने की संभावना है, लेकिन यह देखना होगा कि यह बदलाव वास्तविक सामाजिक न्याय की दिशा में होगा या सिर्फ एक राजनीतिक दांव बनकर रह जाएगा।