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| रीवा स्टिंग का दहलाने वाला खुलासा! डॉक्टर बने 'यमदूतों के एजेंट', कमीशन की हवस में बिक रही है नकली दवा; स्वास्थ्य ढांचे में 'सेप्सिस', प्रशासन मौन Aajtak24 News |
रीवा - जब चिकित्सा सेवा बाज़ार के दरवाज़े पर बिकने लगे, तब समाज की आत्मा कराह उठती है। डॉक्टर जिन्हें कभी धरती का भगवान कहा गया था, अब उसी धरती पर यमदूतों के एजेंट बन बैठे हैं। दवा की दुकानें अब जीवन नहीं, मृत्यु के सौदे की थोक मंडियाँ बन चुकी हैं। रीवा में स्वराज एक्सप्रेस का स्टिंग ऑपरेशन कोई मामूली रिपोर्ट नहीं, बल्कि उस भयावह तंत्र का खुलासा है जिसने इलाज को इंतक़ाम में बदल दिया है- मुनाफे का ऐसा इंद्रजाल जहाँ हर गोली के पीछे किसी गरीब की कराह, और हर इंजेक्शन के पीछे किसी बेबस की लाचारी कैद है। रीवा का यह स्टिंग उजागर करता है कि डॉक्टर कमीशन की हवस में नकली और घटिया दवाइयाँ लिखते हैं, मेडिकल स्टोर मालिक खुलेआम इसका स्वीकार करते हैं, और प्रशासनिक तंत्र या तो मौन है या मूकदर्शक। यह कोई एक जिले की बीमारी नहीं- यह पूरे स्वास्थ्य ढांचे का सेप्सिस है, जिसमें सरकारी अस्पतालों की आत्मा तक संक्रमित हो चुकी है।
संजय गांधी अस्पताल जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में वरिष्ठ चिकित्सक केवल औपचारिक उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उपचार का वास्तविक भार जूनियर डॉक्टरों पर डाल दिया गया है, जो या तो अनुभवहीन हैं या फिर वरिष्ठों के दबाव में असहाय। सरकारी अस्पतालों को जान- बूझकर दयनीय हालत में रखा जा रहा है, ताकि मरीज मजबूर होकर उन्हीं डॉक्टरों के निजी नर्सिंग होम और क्लीनिक की शरण में जाए। यही कैप्टिव मार्केट बनाने की रणनीति है- जहाँ मरीज की विवशता ही डॉक्टर की आय का स्रोत बनती है। निजी अस्पतालों की भव्य इमारतें किसी पारिवारिक संपदा का विस्तार नहीं, बल्कि जनता की बीमारी और असहायता से निकले नोटों का स्थापत्य हैं। ये दीवारें अनगिनत मजबूरियों की कीमत पर खड़ी हैं। हर टेस्ट, हर रिपोर्ट, हर दवा के पीछे कमीशन का मंत्र जाप होता है।
छिंदवाड़ा में जहरीले कफ सिरप से हुई मासूम बच्चों की मौतें केवल एक राज्यीय त्रासदी नहीं, बल्कि राष्ट्रीय शर्म हैं। जिन सिरपों में रासायनिक विषाक्तता मानक सीमा से सौ गुना अधिक पाई गई- वे देश की सप्लाई- चेन से होते हुए छोटे कस्बों तक पहुँचीं। और यह भी कम विडंबना नहीं कि ऐसी दवाओं के निर्माता और वितरक पकड़े जाने के बाद भी उनका नेटवर्क जिंदा है। जबलपुर में लाइसेंस रद्द होना एक प्रतीकात्मक कार्रवाई है, जबकि असली बीमारी है- निरीक्षण की अनुपस्थिति और नियमन का लकवा। अब रीवा के स्टिंग ने इस सड़ी हुई नाड़ी को फिर दबाया है। सवाल यह नहीं कि कितनी नकली दवाएँ हैं, बल्कि यह है कि कितनी जानें इस व्यवस्था की चुप्पी में धीरे- धीरे बुझ रहीं हैं।
कभी कहा जाता था- वेदों से बड़ा वेद है चिकित्सा। आज वही चिकित्सा व्यापारीकरण के हवाले है। अब रोगी भगवान को नहीं, बल्कि डिस्काउंट ऑफ़र वाले क्लीनिक को ढूँढता है। डॉक्टर के माथे पर तिलक नहीं, जेब में रसीदें हैं, और दवा की शीशियों में अमृत नहीं, धोखा भरा है। यह कटु नहीं- सामाजिक यथार्थ है, जहाँ दया का मापदंड रुपये में तय होता है। मरीज की हिम्मत और उसकी ज़मीन दोनों बिकती हैं- कभी अस्पताल की फीस में, कभी मौत की किस्तों में। यह सिलसिला केवल शोकसभा या जांच समिति से नहीं थमेगा। यह एक संगठित माफिया नेटवर्क है, जिसे तोड़ने के लिए नीतिगत और आपराधिक दोनों स्तरों पर सर्जिकल स्ट्राइक करनी होगी।
1.राष्ट्रीय SIT व फॉरेंसिक सप्लाई चेन ऑडिट- हर संदिग्ध दवा या सिरप की निर्माण से वितरण तक की ट्रैकिंग अनिवार्य की जाए। निर्माता, सप्लायर और स्टॉकिस्ट तक का पूरा डेटा सार्वजनिक हो।
2.ब्लैकलिस्टिंग और रियल- टाइम मॉनिटरिंग सिस्टम- ऑनलाइन व ऑफलाइन दोनों प्लेटफार्म पर हर बैच नंबर व वितरण रूट का रिकॉर्ड पारदर्शी हो। जिन कंपनियों की दवाएँ संदिग्ध पाई जाएँ, उन्हें तत्काल निलंबित किया जाए।
3.डॉक्टर-पर्ची में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व- हर पर्ची पर दवा के विकल्प, उनकी कीमत और कंपनी का नाम लिखा जाए। किसी भी कमीशन या प्रोत्साहन को सार्वजनिक रजिस्टर में दर्ज किया जाए।
4.सार्वजनिक स्वास्थ्य सशक्तीकरण और 72 घंटे जवाबदेही नीति- सरकारी अस्पतालों में वरिष्ठ चिकित्सकों की उपस्थिति का रिकॉर्ड ऑनलाइन उपलब्ध कराया जाए। मरीजों की शिकायतों पर 72 घंटे के भीतर जवाबदेही रिपोर्ट तैयार हो।
5.सख्त दंड और सार्वजनिक नामकरण- एक्सपायरी मिटाना, पैकेजिंग में छेड़छाड़ या नकली दवा सप्लाई करने वालों को न केवल आर्थिक दंड मिले, बल्कि सार्वजनिक रूप से ब्लैकलिस्ट कर जेल भेजा जाए। प्रभावित परिवारों के लिए मुआवज़ा कोष बनाया जाए।
मीडिया केवल रिपोर्टर नहीं, लोकतंत्र का स्टेथोस्कोप है- जो व्यवस्था की नाड़ी पकड़ता है। यदि मीडिया, प्रशासन और जनता एक रेखा में खड़े हों, तो इस माफिया का नेटवर्क तोड़ना असंभव नहीं। लेकिन इसके लिए साहस चाहिए- उस साहस की जो भ्रष्टाचार की सूई को सीधे उस नाभि में घुसाए जहाँ रिश्वत और मुनाफा पलता है। अगर इलाज का अर्थ मुनाफा रह गया और रोगी केवल ग्राहक बन गया, तो आने वाले समय में न डॉक्टरों पर विश्वास बचेगा न दवाओं पर। समय आ गया है- नीति और नैतिकता के संयुक्त शस्त्र से इस माफिया के हृदय पर प्रहार करने का। वरना, यही भगवान जब यमदूत बनकर उतरेंगे, तो अस्पतालों में इलाज नहीं, केवल मृत्यु की रसीदें बाँटी जाएँगी, और समाज अपने ही रक्त से लिखेगा, यह मृत्यु प्राकृतिक नहीं, संस्थागत है।
