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| खाद संकट पर सब्सिडी की राजनीति: किसानों को तिरस्कार, सरकार बचा रही खजाना? Aajtak24 News |
रीवा - धान उत्पादन के सीजन में यूरिया और डीएपी जैसी खादों का अभाव किसानों के माथे पर चिंता की गहरी लकीरें खींच रहा है। किसानों को राहत देने के नाम पर सरकार खाद पर सब्सिडी तो देती है, लेकिन हकीकत यह है कि अन्नदाता को समय पर खाद ही नहीं मिल पा रही। इस अभाव ने न सिर्फ खेती को संकट में डाल दिया है, बल्कि सरकार की नीयत और नीति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं।
भारी सब्सिडी, फिर भी किल्लत
आंकड़ों पर नज़र डालें तो यूरिया की कंपनी दर 1512 रुपये 69 पैसे प्रति बोरी (45 किलो) है। सरकार इसमें 1245 रुपये 15 पैसे सब्सिडी देती है, और किसानों को यह मात्र 266 रुपये 50 पैसे में उपलब्ध कराया जाता है। इसी तरह डीएपी की कंपनी दर 2433 रुपये 80 पैसे प्रति बोरी (50 किलो) है, जिसमें सरकार 1083 रुपये 80 पैसे की सब्सिडी वहन करती है। किसानों को यह खाद 1350 रुपये में मिलती है। अन्य जटिल खादों पर भी सरकार इसी तरह हजारों रुपये प्रति बोरी की सब्सिडी देती है। स्पष्ट है कि सरकार सब्सिडी पर हर साल अरबों रुपये खर्च कर रही है। लेकिन यही सब्सिडी किसानों तक राहत के रूप में न पहुँचकर संकट का कारण बन रही है।
सवालों के घेरे में सरकार
विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि सरकार सब्सिडी खत्म कर खाद सीधे कंपनी दर पर बेच दे, तो खजाने पर पड़ने वाला यह भारी बोझ बच सकता है। लेकिन मौजूदा व्यवस्था में स्थिति यह है कि सब्सिडी के नाम पर अरबों रुपये तो खर्च हो रहे हैं, पर किसानों को समय पर खाद नहीं मिल रही। विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि यह नीति जानबूझकर अपनाई गई है ताकि खाद संकट बने और उत्पादन घटे। उत्पादन घटने पर सरकार को धान पर बोनस और समर्थन मूल्य का भारी बोझ नहीं उठाना पड़ेगा।
किसानों पर दोहरी मार
रीवा और मऊगंज क्षेत्र में खाद की स्थिति बेहद खराब है। सोसाइटियों और प्राइवेट विक्रेताओं दोनों के पास किसानों की भीड़ उमड़ रही है। कई-कई घंटे लाइन में खड़े रहने के बाद भी अधिकांश किसानों को निराशा हाथ लग रही है। धान की बढ़ती फसल में इस समय यूरिया का छिड़काव अनिवार्य है। लेकिन अभाव के कारण धान पीली पड़ने लगी है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अगर यही हाल रहा तो धान का उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होगा। उत्पादन घटने का सीधा असर किसानों की आमदनी पर पड़ेगा और सरकार भी अपने घोषित लक्ष्य पूरे नहीं कर पाएगी।
सब्सिडी बनाम वोट बैंक
विश्लेषकों का कहना है कि खाद और धान पर दी जाने वाली सब्सिडी का बड़ा हिस्सा सरकार बचाकर लाड़ली लक्ष्मी, निशुल्क अनाज जैसी योजनाओं में झोंक सकती है, क्योंकि इन योजनाओं से सीधे वोट बैंक साधा जाता है। जबकि खाद संकट से जूझ रहे किसान न केवल आर्थिक नुकसान झेल रहे हैं, बल्कि उनके मन में यह गहरा सवाल उठ रहा है कि क्या अब उनकी मेहनत और फसल की कोई कीमत नहीं बची?
अन्नदाता की अनदेखी
किसान नेताओं का कहना है कि सरकार यह न भूले कि देश का आधार अन्नदाता ही है। यदि किसानों को खाद जैसी मूलभूत सुविधा ही समय पर नहीं मिली तो आने वाले दिनों में उत्पादन घटेगा और निशुल्क अनाज योजना भी धराशायी हो जाएगी। दरअसल, सरकार चाहे जितनी योजनाएं घोषित कर ले, लेकिन अगर खेत में उत्पादन नहीं हुआ तो न अनाज मिलेगा और न ही वोट बचेंगे। अब सबकी नज़रें इस पर टिकी हैं कि रीवा और मऊगंज में खाद संकट को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष किस तरह पहल करते हैं। क्या यह मामला सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप में उलझकर रह जाएगा या किसानों को समय रहते राहत भी मिलेगी? यह आने वाला वक्त ही तय करेगा।
