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रीवा-मऊगंज की 'मौत की सड़कें': जब कागज़ों में विकास चमके और ज़मीन पर लहू बहे, प्रशासन क्यों बेखबर bekhabar Aajtak24 News |
रीवा/मऊगंज - झाबुआ में हुई हृदयविदारक सड़क दुर्घटना, जिसने नौ मासूम जिंदगियों को लील लिया, ने एक बार फिर राष्ट्रीय बहस छेड़ दी है: क्या हमारी सड़कें जीवन का मार्ग हैं या मृत्यु का निमंत्रण? यह त्रासदी क्या रीवा, मऊगंज और समूचे विंध्य क्षेत्र के लिए कोई भयावह चेतावनी बनेगी? मौजूदा हालात देखकर लगता है, शायद नहीं। क्योंकि रीवा जिले की राष्ट्रीय राजमार्ग 30 और 35 की जमीनी सच्चाई आज भी सन्न कर देने वाली है; वे मौत के मुंह में जाती सड़कें बन चुकी हैं और शासन-प्रशासन गहरी नींद में सोया हुआ है।
सड़कों की दुर्दशा: कागज़ों में 'स्वर्णिम', ज़मीन पर 'शर्मनाक रोग मार्ग'
रीवा जिले के मंगवा से लेकर चाकघाट तक का मार्ग, जिसे बड़े गर्व से "राष्ट्रीय राजमार्ग" कहा जाता है, वास्तव में 'रोग मार्ग' से कम नहीं है। इसकी जर्जर स्थिति इतनी भयानक है कि दोपहिया वाहन चालक आए दिन फिसलते हैं, और अक्सर पीछे से आने वाले बेलगाम ट्रकों या भारी वाहनों की चपेट में आकर काल के गाल में समा जाते हैं। इन मार्गों पर गति सीमा 80 किलोमीटर प्रतिघंटा निर्धारित की गई है, लेकिन सड़कों की हालत ऐसी नहीं है कि इस गति से वाहन चलाना सुरक्षित हो। न तो सड़कों का रख-रखाव उस मानक का है और न ही यातायात प्रबंधन की कोई व्यवस्था। यह एक खुला निमंत्रण है दुर्घटनाओं को, जो लगभग हर दिन इन मार्गों पर घटित हो रही हैं।
डिवाइडर नहीं, खुले मौत के द्वार: अनियोजित कटों का जाल
रीवा से चाकघाट के बीच बने डिवाइडरों की स्थिति और भी विकट है। इन डिवाइडरों में 45 से अधिक अनधिकृत और अनियोजित कट बनाए गए हैं। इन 'खुले मौत के द्वारों' से दोनों ओर से वाहन अचानक राजमार्ग पार करते हैं, जिससे हाई-स्पीड में आ रहे वाहनों को संभालने का कोई मौका नहीं मिलता। परिणामस्वरूप, भीषण दुर्घटनाएं एक आम बात हो गई हैं। ये कट किसी भी इंजीनियरिंग मानक का पालन नहीं करते; ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हें या तो स्थानीय राजनीतिक दबाव में बनाया गया है, या फिर कुछ प्रभावशाली लोगों की 'सुविधा' के लिए, बिना किसी जन सुरक्षा के विचार के। यह लापरवाही सीधे तौर पर लोगों की जान से खिलवाड़ है।
अधूरे ब्रिज, पूरा टोल: क्या यही है 'गुड गवर्नेंस' का मॉडल?
इन राष्ट्रीय राजमार्गों पर कई ऐसे फ्लाईओवर या ब्रिज हैं जो वर्षों से आधे-अधूरे पड़े हैं। निर्माण कार्य ठप है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, टोल टैक्स की वसूली पूरी वफादारी और नियमितता से जारी है। यह सवाल उठाता है कि जब सुविधाएं अधूरी हैं, ढांचागत परियोजनाएं लंबित हैं, तो जनता से टोल टैक्स किस आधार पर वसूला जा रहा है? क्या रीवा और मऊगंज जिले के लिए कोई अलग नियम लागू होते हैं? क्या राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) और राज्य सरकार की जवाबदेही सिर्फ टोल के कलेक्शन तक ही सीमित रह गई है और सुविधाओं के नाम पर जनता को ठगा जा रहा है? यह 'गुड गवर्नेंस' के दावों पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है।
वृक्ष कटाई और पर्यावरणीय अपराध का महाघोटाला: रिकॉर्ड में हरियाली, ज़मीन पर वीरानी
2018 में जब इन सड़कों का निर्माण कार्य शुरू हुआ, तो हजारों पुराने और विशाल वृक्षों को निर्दयता से काट दिया गया। सरकारी नियमों के अनुसार, जितने पेड़ काटे जाते हैं, उससे 10% अधिक वृक्षारोपण करना अनिवार्य है ताकि पर्यावरणीय संतुलन बना रहे। लेकिन ज़मीनी सच्चाई बेहद निराशाजनक है। न तो नए वृक्ष लगाए गए और न ही उनकी कोई निगरानी की गई। इससे भी बढ़कर, जहाँ पुराने वृक्ष आज भी खड़े थे और पर्यावरण को ऑक्सीजन दे रहे थे, वहाँ बिना किसी अनुमति के उन्हें काटकर डामर बिछाया जा रहा है। वन विभाग, जो इस पूरे मामले का संरक्षक होना चाहिए था, वह या तो पूरी तरह मौन है या इस बड़े पर्यावरणीय अपराध में सक्रिय रूप से सहभागी। रीवा जिले में एक ताकतवर व्यक्ति को वृक्षारोपण का ठेका मिला है। कागजों और सरकारी रिकॉर्ड में हजारों पौधे लगाए गए हैं, लेकिन धरातल पर न हरियाली है, न ऑक्सीजन। यह पर्यावरण का संरक्षण नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार की खेती है—जहां कागज़ी पौधे सरकारी फाइलों में पनपते हैं, और असली, जीवनदायी पौधे 'विकास' के नाम पर निर्ममता से काट दिए जाते हैं।
दुर्घटनाएं: भाग्य नहीं, व्यवस्था की हत्या
रीवा और मऊगंज जिले का शायद ही कोई ऐसा गांव बचा होगा, जहां पिछले कुछ वर्षों में मोटरसाइकिल या वाहन दुर्घटना में किसी की जान न गई हो। अक्सर परिजन इसे भगवान का लेखा-जोखा मानकर या अपनी किस्मत का कसूर समझकर चुप बैठ जाते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह कोई 'भाग्य' नहीं है। यह कायर प्रशासन, लापरवाह इंजीनियरिंग और मूक शासन की ओर से की गई 'हत्या' है। अगर सड़कों पर मौत ही नियति है, तो फिर सड़कें क्यों बनती हैं? बीमा क्यों कराया जाता है? योजनाएं क्यों घोषित होती हैं? ये सवाल सिर्फ पीड़ितों के मन में नहीं, बल्कि हर जागरूक नागरिक के मन में उठने चाहिए।
समाज के सामने सवाल, सरकार के सामने चुनौती:
- क्या रीवा-मऊगंज की सड़कें इसी तरह कब्रगाह बनी रहेंगी, जहाँ हर मोड़ पर मौत का खतरा मंडराता रहेगा?
- क्या राष्ट्रीय राजमार्गों पर सिर्फ टोल की वसूली ही सर्वोपरि प्राथमिकता रहेगी, और सुविधाओं तथा सुरक्षा को नजरअंदाज किया जाएगा?
- क्या पेड़ काटना ही 'विकास' की एकमात्र परिभाषा है, और वृक्षारोपण सिर्फ एक कागज़ी दिखावा बनकर रह जाएगा?
- क्या रीवा जैसे संवेदनशील जिलों में कभी किसी अधिकारी या ठेकेदार को उसकी लापरवाही और भ्रष्टाचार के लिए जवाबदेह ठहराया जाएगा?
जब भ्रष्टाचार को संरक्षण मिलता है, जब प्रशासनिक लापरवाही हावी होती है और जब पीड़ित को उपेक्षा मिलती है, तब सड़कें रास्ते नहीं रहतीं—वो नरसंहार के गलियारे बन जाती हैं। रीवा जिले के नागरिकों को अब यह प्रश्न सरकार से पूछना ही होगा—क्या विकास की कीमत हमेशा हमारे जीवन से ही चुकाई जाएगी? क्या इन 'मौत के रास्तों' पर शासन की नींद कभी टूटेगी?