बट सावित्री व्रत: पति की दीर्घायु, नारी शक्ति और आस्था का अटूट बंधन bandhan Aajtak24 News

 

बट सावित्री व्रत: पति की दीर्घायु, नारी शक्ति और आस्था का अटूट बंधन bandhan Aajtak24 News 

रीवा - भारतीय संस्कृति में पतिव्रता धर्म और नारी तपस्या का अनुपम पर्व बट सावित्री व्रत हर वर्ष ज्येष्ठ मास की अमावस्या को बड़ी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाता है। सुहागिन स्त्रियां इस दिन अपने पति की लंबी आयु, उत्तम स्वास्थ्य और अटूट सौभाग्य की कामना करते हुए विशेष व्रत रखती हैं। इस व्रत की नींव पौराणिक कथाओं में निहित है, जो सावित्री और सत्यवान के अद्वितीय प्रेम और त्याग की गाथा गाती है। सावित्री ने अपने दृढ़ संकल्प और पतिनिष्ठा के बल पर मृत्यु के देवता यमराज से भी अपने पति के प्राण वापस छीन लिए थे।

वटवृक्ष: त्रिमूर्ति का प्रतीक और जीवन का आधार

रीवा के प्रसिद्ध धर्माचार्य पंडित प्राणनाथ त्रिपाठी जी ने बट सावित्री व्रत और वटवृक्ष के आध्यात्मिक महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि वटवृक्ष मात्र एक साधारण वृक्ष नहीं है, बल्कि यह त्रिदेवों - ब्रह्मा, विष्णु और महेश - का पवित्र निवास माना जाता है। इसकी जड़ों में ब्रह्मा, तने में विष्णु और शाखाओं में भगवान शिव का वास होता है। इस पवित्र वृक्ष की पूजा करके महिलाएं न केवल अपने पति की दीर्घायु की प्रार्थना करती हैं, बल्कि पूरे परिवार के कल्याण और समृद्धि की भी कामना करती हैं।

पंडित त्रिपाठी जी ने सावित्री के अटूट संकल्प और नारी शक्ति की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि सावित्री जैसी नारी शक्ति आज भी हम सभी के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत है। यह व्रत हमें यह महत्वपूर्ण संदेश देता है कि यदि हृदय में दृढ़ संकल्प और अटूट विश्वास हो, तो मृत्यु जैसी अटल शक्ति भी हमारे मार्ग में बाधा नहीं बन सकती है।

व्रत का शास्त्रोक्त विधान:

बट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को विधि-विधान से किया जाता है। कुछ क्षेत्रों में महिलाएं त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों का कठोर व्रत रखती हैं। इस वर्ष यह व्रत शनिवार, रविवार और सोमवार के शुभ संयोग में पड़ने से इसका महत्व और पुण्य कई गुना बढ़ गया है।

व्रत के दिन प्रातः सूर्योदय से पहले स्नान करना चाहिए और पवित्र मन से पीले या लाल रंग के वस्त्र धारण करने चाहिए। काले रंग के वस्त्र या ऐसे रंग जिनमें कालापन हो, उन्हें इस दिन त्याग देना चाहिए। पूजन के लिए हल्दी, सिंदूर, पान, पुष्प, फल, गंगाजल, जल का कलश, रक्षा सूत्र (कलावा), नारियल, घी का दीपक और नैवेद्य जैसी सामग्री एकत्रित की जाती है। वटवृक्ष की जड़ में सावित्री-सत्यवान की प्रतिमा या उनका चित्र स्थापित करके विधिवत पूजन किया जाता है।

पूजन विधि में वटवृक्ष के चारों ओर रक्षा सूत्र लपेटकर 108 बार परिक्रमा करने का विधान है। हालांकि, गर्भवती महिलाओं को लंबी परिक्रमा करने से बचने की सलाह दी जाती है। व्रत कथा का श्रवण इस पूजा का अभिन्न अंग है, जिसमें यमराज, सावित्री और सत्यवान के बीच का महत्वपूर्ण संवाद सुना जाता है। अखंड दीपक जलाकर महिलाएं पूरे दिन संकल्पपूर्वक व्रत का पालन करती हैं।

गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष मार्गदर्शन:

पंडित प्राणनाथ त्रिपाठी जी ने गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष निर्देश जारी किए हैं। उन्होंने बताया कि गर्भवती स्त्रियां भी इस कल्याणकारी व्रत को कर सकती हैं, लेकिन उनके लिए कुछ नियमों में विशेष छूट दी गई है। उन्हें निर्जल व्रत रखने से बचना चाहिए और बीच-बीच में जल ग्रहण करना चाहिए। लंबी परिक्रमा करने और देर तक खड़े रहने से भी उन्हें परहेज करना चाहिए। वे पूजा और मानसिक ध्यान के माध्यम से भी इस व्रत के पुण्य फल को प्राप्त कर सकती हैं।

सोलह शृंगार का महत्व:

बट सावित्री व्रत के दिन सोलह शृंगार करने का विशेष महत्व है। यह स्त्री के सौभाग्य की रक्षा और उसमें वृद्धि का प्रतीक माना जाता है। इस दिन महिलाएं चूड़ी, बिंदी, सिंदूर, मांगटीका, नथ, पायल, बिछिया, काजल आदि से सोलह शृंगार करती हैं। बालों में फूल लगाना भी शुभ माना गया है। यह शृंगार केवल सौंदर्य का प्रदर्शन नहीं है, बल्कि यह सौभाग्य और व्रत के प्रति गहरी श्रद्धा का प्रतीक है।

ब्रह्मचर्य और आत्मसंयम:

व्रत के तीन दिनों तक महिलाओं को पूर्ण संयम, ब्रह्मचर्य और सात्विक जीवन का पालन करना चाहिए। इस दौरान झूठ बोलने, कटु वचन कहने, किसी से कलह करने और अपवित्र भोजन करने से बचना अत्यंत आवश्यक है। भगवान विष्णु, यमराज और सावित्री-सत्यवान का ध्यान करना इस व्रत का महत्वपूर्ण अंग है।

नारी शक्ति की अनुपम प्रेरणा:

बट सावित्री व्रत मात्र एक पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह भारतीय स्त्री की अटूट श्रद्धा, असीम शक्ति और अपने पति के प्रति अडिग निष्ठा का जीवंत प्रतीक है। यह व्रत प्रत्येक स्त्री को यह दिव्य प्रेरणा देता है कि वह अपने दृढ़ संकल्प और पवित्र निष्ठा के बल पर मृत्युलोक में भी जीवन का संचार करने की अद्भुत क्षमता रखती है।



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