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शिक्षण संस्थानों में निजीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति: समाज के लिए चिंता का विषय visay Aajtak24 News |
रीवा -आज देश के कोने-कोने में गगनचुंबी इमारतें खड़ी हो रही हैं, वहीं शिक्षा के क्षेत्र में भी निजीकरण अपनी जड़ें तेजी से मजबूत कर रहा है। शिक्षण सत्र 2025-26 में भी भ्रष्टाचार और शोषण की यही पुरानी कहानी दोहराई जा रही है। निजी स्कूलों द्वारा अभिभावकों से अनावश्यक शुल्क वसूली जा रही है, जिससे शिक्षा का सपना एक भारी आर्थिक बोझ बनता जा रहा है।
शिक्षा के नाम पर लूट-खसोट
निजी स्कूलों में अभिभावकों से ड्रेस, किताबें, परिवहन, और विभिन्न आयोजनों के नाम पर अत्यधिक शुल्क लिया जाता है। स्कूल संचालक दुकानों से कमीशन भी लेते हैं, जिससे एक चक्रव्यूह तैयार होता है, जिसमें अभिभावकों को आर्थिक दबाव का सामना करना पड़ता है। परिवहन के नाम पर बच्चों को ठसाठस भरे वाहनों में ढोया जाता है, जिससे उनकी सुरक्षा पर भी खतरा मंडराता है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी निजी स्कूलों की संख्या में वृद्धि हो रही है, लेकिन वहां की सुविधाएं बेहद सीमित हैं, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ रहा है।
गुणवत्ता विहीन शिक्षा और शिक्षकों का शोषण
निजी स्कूलों में शिक्षकों को न्यूनतम वेतन दिया जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षक ₹1500 से ₹3000 तक के वेतन पर कार्य करने को मजबूर हैं, जबकि स्कूलों द्वारा बच्चों से शहरी दरों के समान फीस वसूली जाती है। वहीं, शासकीय विद्यालयों में लेक्चरर को लाखों रुपये का वेतन मिलता है, जबकि संविदा शिक्षकों को नाममात्र की राशि दी जाती है। सरकार और प्रशासन द्वारा इन शिक्षकों की वेतन व्यवस्था को नियमित करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है, जिससे शिक्षकों के मनोबल पर नकारात्मक असर पड़ रहा है।
शासन की दोहरी नीतियां और युवाओं का गिरता मनोबल
शासकीय विद्यालयों की संख्या लगातार घट रही है, जिससे बेरोजगारी बढ़ रही है। सरकारी और संविदा कर्मचारियों की वेतन व्यवस्था में भारी अंतर है। सरकारी कर्मचारियों को वेतन के साथ विभिन्न भत्ते दिए जाते हैं, लेकिन संविदा कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता। बेरोजगारी के कारण युवा मजबूरी में निजी संस्थानों में अल्प वेतन पर कार्य करने को विवश हैं।
क्या सरकार उठाएगी ठोस कदम
मध्यप्रदेश के उपमुख्यमंत्री एवं रीवा जिले के विधायक से जनता को यह आशा है कि वे शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने के लिए कठोर कदम उठाएंगे। जनता जानना चाहती है कि क्या निजी स्कूलों की मनमानी पर रोक लगेगी? क्या शिक्षकों के वेतनमान को नियमित किया जाएगा? क्या बच्चों की सुरक्षा और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित की जाएगी?
यदि सरकार सच में बेरोजगारों, शिक्षकों और अभिभावकों के हित में कार्य करती है, तो शिक्षा के नाम पर हो रही इस लूट को रोका जा सकता है। नहीं तो निजीकरण का यह बढ़ता दबदबा शिक्षा को उद्योग बना देगा, और विद्यादान का पवित्र कार्य एक व्यापार में बदल जाएगा।
समाज के लिए एक सवाल:
क्या हम शिक्षा को एक अधिकार मानेंगे या एक वस्तु? समय आ गया है कि सरकार इस पर गंभीरता से विचार करे और शिक्षा के क्षेत्र में सुधार लाए।