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क्या डगमगा रहा है लोकतंत्र का चौथा स्तंभ? अब जरूरी है पत्रकारिता का आत्ममंथन Aajtak24 News |
रीवा - भारतीय लोकतंत्र की नींव चार मजबूत स्तंभों पर टिकी है—विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता। इनमें पत्रकारिता को ‘चौथा स्तंभ’ का दर्जा इसीलिए प्राप्त हुआ क्योंकि यह सत्ता और जनता के बीच पुल का काम करती है। पत्रकार वह दर्पण है जिसमें समाज अपना प्रतिबिंब देखता है और सत्ता अपने निर्णयों का परिणाम आंकती है। लेकिन आज जब हम वर्तमान समय की पत्रकारिता पर दृष्टिपात करते हैं, तो एक सवाल गूंजता है—क्या यह स्तंभ अब डगमगाने लगा है?
पत्रकारिता: सेवा या सौदा?
वर्तमान परिदृश्य में पत्रकारिता की भूमिका पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े हो चुके हैं। क्या पत्रकारिता अब भी वैसी ही निष्पक्ष, निर्भीक और निष्ठावान है जैसी उसे होना चाहिए? या फिर वह धीरे-धीरे राजनीतिक प्रभाव, कॉरपोरेट दबाव, और व्यक्तिगत स्वार्थ के मकड़जाल में उलझती जा रही है?
अक्सर देखा जाता है कि खबरों की प्राथमिकता अब ‘जनहित’ से नहीं, ‘लाभ’ से तय होती है। विज्ञापन और प्रायोजित कंटेंट को खबरों की जगह दी जाती है। जिन मुद्दों पर पत्रकारों को जनता की आवाज बनकर सत्ता से सवाल पूछने चाहिए, वहां वे अब चुप्पी साधे नजर आते हैं।
जब पत्रकारिता बन जाए वसूली का माध्यम
आज अनेक ऐसे उदाहरण सामने आ रहे हैं जहां पत्रकारिता को निजी हितों की पूर्ति का माध्यम बना लिया गया है। कुछ तथाकथित पत्रकार खनिज व्यापारियों, स्कूल प्रबंधकों, सरकारी अधिकारियों और पंचायत प्रतिनिधियों से ‘डील’ कर पत्रकारिता को ब्लैकमेलिंग और वसूली का औजार बना रहे हैं।
कोई स्कूल खुले तो पत्रकार पहुंचता है—but only if advertisement is promised. कोई अधिकारी सुविधा न दे तो अगली सुबह अख़बार में खबर छपती है—आरोपों के साथ। यह पत्रकारिता नहीं, बल्कि नैतिक पतन है। इससे न केवल समाज का भरोसा टूटता है, बल्कि सच्चे पत्रकारों की मेहनत भी धूमिल हो जाती है।
खबरें बिकती हैं, सच्चाई दबती है
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अब टीआरपी और प्रायोजकों की दौड़ में खबरों की आत्मा भूल चुका है। कई बार देखा गया है कि जो खबरें जनता को जागरूक कर सकती थीं, वे दबा दी जाती हैं क्योंकि वह 'अनकंफ़र्टेबल' हैं। वहीं, झूठी या अतिरंजित कहानियां 'ब्रेकिंग न्यूज़' बनकर परोसी जाती हैं।
खबरें 'प्लांट' की जाती हैं, हेडलाइंस 'सेट' होती हैं, और डिबेट्स 'स्क्रिप्टेड'। इस पूरे तंत्र में पत्रकार का दायित्व, सवाल पूछने की उसकी ताकत और निष्पक्षता सबसे पहले बलि चढ़ती है।
लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी
जब पत्रकार सत्ता से डरने लगे, जब कलम सौदागरों की मुट्ठी में आ जाए, जब सच्चाई छपने से पहले सौदेबाजी होने लगे—तब समझिए लोकतंत्र खतरे में है। क्योंकि जब चौथा स्तंभ कमजोर होता है, तो शेष तीन स्तंभों पर भी उसका सीधा असर पड़ता है।
एक सशक्त लोकतंत्र की पहचान ही यह है कि वहां एक निर्भीक और स्वतंत्र मीडिया हो, जो हर ताकतवर से सवाल पूछ सके, हर कमजोर की आवाज बन सके और हर अन्याय के विरुद्ध खड़ा हो सके।
जब पत्रकारों पर होने लगे हमले, और समाज मौन हो जाए
वर्तमान समय में पत्रकारों पर हमले बढ़े हैं। कई बार वे सत्ता के खिलाफ बोलने या लिखने की सजा भुगतते हैं—शारीरिक हमले, मानसिक उत्पीड़न, झूठे मुकदमे या सोशल मीडिया ट्रॉलिंग के रूप में। लेकिन दुःखद यह है कि ऐसे समय में न पत्रकार बिरादरी एकजुट होती है, न ही समाज आवाज़ उठाता है।
एक समय था जब किसी पत्रकार पर अत्याचार होता, तो पूरा क्षेत्र, संस्थान, और समाज उसकी ढाल बनकर खड़ा हो जाता था। आज वह संवेदनशीलता खोती जा रही है। क्योंकि शायद आज पत्रकारों ने खुद अपनी विश्वसनीयता पर आंच आने दी है।
गौरवशाली अतीत और प्रेरक उदाहरण
हमारे इतिहास में पत्रकारिता का स्थान अत्यंत ऊंचा रहा है। नारद मुनि को पहला संवाददाता कहा जाता है, जिनकी खबर निष्पक्ष होती थी, और जिनके शब्दों में संतुलन होता था। आधुनिक युग में गणेश शंकर विद्यार्थी, बाल गंगाधर तिलक, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी जैसे व्यक्तित्वों ने पत्रकारिता को जनक्रांति का अस्त्र बनाया था।
गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा था—“पत्रकारिता का धर्म है कि वह अन्याय के विरुद्ध खड़ी हो, चाहे वह सत्ता से आए या समाज से।” लेकिन आज पत्रकारिता कितनी बार सत्ता के सामने नतमस्तक हो जाती है?
आत्मचिंतन की आवश्यकता
अब समय आ गया है कि पत्रकारिता को एक गहरे आत्ममंथन की आवश्यकता है। क्या आज के पत्रकार अपने कर्तव्य को समझ रहे हैं? क्या वे समझते हैं कि वे केवल खबरें नहीं लिख रहे, बल्कि राष्ट्र का भविष्य गढ़ रहे हैं?
जरूरत है उस वैचारिक अनुशासन की जो पत्रकारिता को मिशन बनाए, न कि मात्र प्रोफेशन। पत्रकारों को फिर से अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करनी होगी—जनता के प्रति, सच्चाई के प्रति, और लोकतंत्र के प्रति।
कौन बनेगा जनता की आवाज?
यदि पत्रकार खुद ही सत्ता का हिस्सा बन जाएं, यदि वे ही चुप रह जाएं, तो फिर जनता की आवाज कौन बनेगा? क्या हम पत्रकारिता को केवल एक लाइसेंस, एक मान्यता या एक कमाई का जरिया मान बैठे हैं? क्या कलम की धार अब केवल आरटीआई और व्हाट्सएप ग्रुप तक सीमित रह गई है?
कलम से शक्ति नहीं, सेवा निकलनी चाहिए। यह सेवा सत्य की होनी चाहिए, जनमानस की होनी चाहिए और राष्ट्र के हित की होनी चाहिए। पत्रकार को फिर से वही जन-प्रहरी बनना होगा जो लोकतंत्र के हित में हर सत्ता से सवाल पूछ सके—बिना भय और बिना पक्षपात।
निष्कर्ष:
पत्रकारिता की आत्मा आज भी जीवित है, लेकिन वह घायल है। जरूरत है उसे फिर से ऊर्जा देने की—सत्य, साहस और संवेदनशीलता से। अगर यह चौथा स्तंभ कमजोर पड़ा, तो लोकतंत्र की इमारत कभी भी ढह सकती है। इसलिए, आज पत्रकारिता को अपने भीतर झांकने की जरूरत है—सिर्फ़ दूसरों की खबरें दिखाने की नहीं, बल्कि खुद को भी आइना दिखाने की।
यदि पत्रकारिता को फिर से सम्मान पाना है, तो उसे बाजार नहीं, मूल्य केंद्रित बनाना होगा। यही चौथे स्तंभ की असली मजबूती होगी।