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पाकिस्तान की धरती पर मंडराया अकाल! भारत ने सिंधु जल की धार रोकी, अब सूखेंगे आतंक के बीज Aajtak24 News |
नई दिल्ली - भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में साइन की गई सिंधु जल संधि दशकों से वैश्विक स्तर पर जल सहयोग का एक बेहतरीन उदाहरण मानी जाती रही है। यह संधि दोनों देशों के बीच जल विवादों को शांतिपूर्वक सुलझाने और संसाधनों के न्यायसंगत बंटवारे की नींव बनी रही, भले ही दोनों देशों ने तीन युद्ध लड़े हों। लेकिन 22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए भीषण आतंकी हमले के बाद भारत ने इस संधि को निलंबित करने का जो अभूतपूर्व निर्णय लिया, वह न केवल दक्षिण एशिया की रणनीतिक राजनीति में बड़ा मोड़ है, बल्कि यह आतंकवाद के खिलाफ भारत की ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति का भी संकेत है। इस हमले की जिम्मेदारी पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठन ‘द रेसिस्टेंस फ्रंट’ ने ली थी। इसके जवाब में भारत ने सिंधु जल संधि के निलंबन के साथ-साथ अटारी-वाघा सीमा को बंद करने और पाकिस्तानी राजनयिकों को निष्कासित करने जैसे कई सख्त कदम उठाए। भारत का तर्क है कि जब पाकिस्तान आतंकवाद को खुला समर्थन दे रहा है, तब ऐसी किसी भी संधि की नैतिकता और वैधता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। यह निर्णय न केवल पाकिस्तान की जल, कृषि और ऊर्जा व्यवस्था को चुनौती देता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय जल कूटनीति में भी नई बहस को जन्म देता है।
सिंधु जल संधि: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
सिंधु जल संधि भारत और पाकिस्तान के बीच 19 सितंबर 1960 को विश्व बैंक की मध्यस्थता में साइन की गई थी। इसका उद्देश्य सिंधु नदी प्रणाली के जल के उपयोग को लेकर स्पष्ट और स्थायी नियम निर्धारित करना था। इस प्रणाली में छह प्रमुख नदियां—सिंधु, झेलम, चिनाब (पश्चिमी नदियां) और रावी, ब्यास, सतलुज (पूर्वी नदियां) शामिल हैं।
इस संधि के तहत:
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पूर्वी नदियों (रावी, ब्यास, सतलुज) का पूरा जल भारत को दिया गया।
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पश्चिमी नदियों (सिंधु, झेलम, चिनाब) का जल पाकिस्तान को नियंत्रित करने की अनुमति दी गई, जबकि भारत को गैर-उपभोगी उपयोग—जैसे सिंचाई, जलविद्युत, और औद्योगिक प्रयोजन के लिए सीमित अधिकार मिले।
संधि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जल सहयोग का एक आदर्श मॉडल माना गया, जिसने दोनों देशों के बीच तीन युद्धों और अनेक संघर्षों के बावजूद भी टिके रहने का प्रमाण प्रस्तुत किया।
हमले के बाद बदलती रणनीति: भारत की नई सोच
22 अप्रैल को हुए पहलगाम आतंकी हमले ने भारत सरकार को झकझोर कर रख दिया। इस हमले में 26 लोग मारे गए और दर्जनों घायल हुए। इस हमले की जिम्मेदारी पाकिस्तान-समर्थित आतंकी संगठन द रेसिस्टेंस फ्रंट (TRF) ने ली। भारत के सुरक्षा तंत्र और सरकार ने इस हमले को सीधे-सीधे पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को समर्थन देने का प्रमाण माना। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (CCS) की बैठक में ऐतिहासिक निर्णय लिया गया:
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सिंधु जल संधि को निलंबित किया गया।
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अटारी-वाघा सीमा को अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया।
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पाकिस्तानी राजनयिकों को निष्कासित किया गया।
यह कदम भारत के अब तक के रणनीतिक रुख में एक ठोस और निर्णायक परिवर्तन को दर्शाता है।
भारत का तर्क: आतंकवाद बनाम संधि की आत्मा
भारत का तर्क है कि सिंधु जल संधि की आधारशिला आपसी विश्वास, शांतिपूर्ण संबंध और परस्पर सम्मान पर टिकी थी। पाकिस्तान द्वारा आतंकवादी संगठनों को शरण और समर्थन देना इस मूल भावना का उल्लंघन है। संधि का सम्मान तब तक संभव है जब तक दोनों पक्ष समान रूप से इसकी भावना का पालन करें। जब एक पक्ष लगातार आतंक फैलाता रहे और दूसरा उसे जल मुहैया कराए, तो यह किसी भी प्रकार की न्यायोचित व्यवस्था नहीं हो सकती।
पाकिस्तान पर संभावित प्रभाव: संकट की आहट
1. कृषि संकट
पाकिस्तान की 80% कृषि भूमि, यानी लगभग 16 मिलियन हेक्टेयर, सिंधु नदी प्रणाली के जल पर निर्भर है। इस जल का 93% हिस्सा सिंचाई के लिए उपयोग होता है, जिससे गेहूं, चावल, गन्ना और कपास जैसी प्रमुख फसलें उगाई जाती हैं। जल प्रवाह में कमी से इन फसलों का उत्पादन प्रभावित हो सकता है, जिससे खाद्य संकट, महंगाई और ग्रामीण आर्थिक अस्थिरता पैदा हो सकती है।
2. ऊर्जा संकट
सिंधु नदी प्रणाली पाकिस्तान के जलविद्युत संयंत्रों का मुख्य स्रोत है, जैसे:
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तरबेला डैम
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मंगला डैम इनसे देश की कुल बिजली आपूर्ति का लगभग 27% उत्पन्न होता है। जल प्रवाह रुकने की स्थिति में बिजली उत्पादन में भारी गिरावट आ सकती है, जिससे घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में अंधेरा छा सकता है।
3. पेयजल आपूर्ति
कराची, लाहौर, मुल्तान जैसे प्रमुख शहरी क्षेत्रों की पेयजल व्यवस्था भी सिंधु प्रणाली पर आधारित है। जल आपूर्ति में कटौती का सीधा असर आम जनता पर पड़ेगा, जिससे सामाजिक अशांति और स्वास्थ्य संकट उत्पन्न हो सकते हैं।
4. आर्थिक झटका
पाकिस्तान की जीडीपी का 25% और लगभग 61% जनसंख्या इस जल प्रणाली से सीधे प्रभावित होती है। जल संकट से कृषि उत्पादन में गिरावट, खाद्य आयात पर निर्भरता और बेरोजगारी जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
भारत के लिए लाभ: रणनीतिक और विकासात्मक आयाम
1. जल नियंत्रण का अधिकार
अब भारत को पश्चिमी नदियों पर अधिक नियंत्रण मिलेगा। इससे वह पकाल दुल, रातले, किरु, और सावलकोट जैसी अटकी पड़ी जल परियोजनाओं को गति दे सकता है। ये परियोजनाएं जम्मू-कश्मीर में ऊर्जा उत्पादन और विकास को बढ़ावा देंगी।
2. जलविद्युत और सिंचाई में वृद्धि
भारत पहले ही पूर्वी नदियों के जल का उपयोग पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में कर रहा है। अब पश्चिमी नदियों के सीमित उपयोग को बढ़ाकर वह अपनी जलविद्युत क्षमता और सिंचाई सुविधा को और मजबूत कर सकता है।
3. कूटनीतिक दबाव का हथियार
जल एक अत्यंत मूल्यवान संसाधन है। पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए यह एक शक्तिशाली हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है, विशेष रूप से आतंकवाद के खिलाफ कठोर रुख अपनाने के लिए।
अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया: विश्व बैंक और पड़ोसी देश क्या सोचते हैं?
सिंधु जल संधि विश्व बैंक की मध्यस्थता में बनी थी। इसलिए इसके निलंबन पर विश्व बैंक की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण होगी। अब तक विश्व बैंक ने संयम से काम लेते हुए केवल ‘विवाद के शांतिपूर्ण समाधान’ की अपील की है। दूसरी ओर, पाकिस्तान ने इसे "युद्ध का कार्य" कहकर निंदा की है और अंतरराष्ट्रीय अदालत में जाने की धमकी दी है।चीन, जो ब्रह्मपुत्र और सिंधु के ऊपरी हिस्से को नियंत्रित करता है, स्थिति का मूल्यांकन कर रहा है। नेपाल और बांग्लादेश जैसे देश, जो भारत की जल नीतियों से प्रभावित होते हैं, अब भारत की जल कूटनीति को और करीब से देखने लगे हैं।
क्षेत्रीय स्थिरता पर असर: एक नया भू-राजनीतिक परिदृश्य
जल एक सीमित संसाधन है, और उसकी आपूर्ति पर नियंत्रण आज के समय में रणनीतिक लाभ का प्रतीक बन चुका है। भारत द्वारा सिंधु जल संधि का निलंबन सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए एक नया भू-राजनीतिक संतुलन बना सकता है।
यह कदम आने वाले समय में:
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भारत-पाक संबंधों को और तनावपूर्ण बना सकता है।
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दक्षिण एशिया की जल कूटनीति में अस्थिरता पैदा कर सकता है।
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अन्य देशों के जल बंटवारा समझौतों को भी प्रश्नों के घेरे में ला सकता है।
आतंकवाद पर कठोर रुख या वैश्विक चेतावनी
भारत का सिंधु जल संधि को निलंबित करना निस्संदेह एक साहसिक कदम है। यह निर्णय दिखाता है कि भारत अब आतंकवाद के खिलाफ कड़े कदम उठाने से पीछे नहीं हटेगा—even if it means questioning international treaties. हालांकि यह निर्णय पाकिस्तान को आर्थिक, सामाजिक और कूटनीतिक रूप से हिला सकता है, लेकिन इससे क्षेत्रीय अस्थिरता का खतरा भी बढ़ जाता है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक, को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि जब एक देश बार-बार आतंक को प्रश्रय दे, तो क्या पुराने समझौते अब भी वैध माने जा सकते हैं? भारत ने एक स्पष्ट संदेश दे दिया है—आतंकवाद के साथ कोई समझौता नहीं होगा, चाहे वह संधि के नाम पर ही क्यों न हो। अब आगे की चाल पाकिस्तान और विश्व समुदाय की है।