बदलते वक्त का एक सच आखिर कब होगी खत्म गरीबी और भुखमरी | Badalte waqt ka ek sach akhir kab hogi khatm garibi or bhukmari

बदलते वक्त का एक सच आखिर कब होगी खत्म गरीबी और भुखमरी

कीर्ति वर्रा


रतलाम (यूसुफ अली बोहरा) - जब से होश संभाला है सिर्फ यही देखता आ रहा हूं गरीबी और भुखमरी और आज के हालात भी कुछ ऐसे ही है जैसे कि शहर तरक्की करता रहा वक्त गुजरता रहा आखिर फिर क्यों आज भी नहीं खत्म हुई गरीबी और भुखमरी अगर देखा जाए तो इसकी कहीं वजह हो सकती है जैसे कि शासन प्रशासन की तरफ से इनको जो सुविधाएं मिलती है उन सुविधाओं का वह लोग भी फायदा उठा लेते हैं जो दरअसल गरीब है ही नहीं वह कहते हैं ना कि हर छोटी मछली को एक बड़ी मछली खा जाती है और रहती है बड़ी मछली पर नजर मछुआरों की मेरे शब्दों को समझ गए होंगे आप क्योंकि मैंने लॉकडाउन में ऐसे शख्स को भी गरीबों का हक जो उन्हें मिलना चाहिए खाते हुए देखा फिर भी मुझे इस बात से कोई शिकायत नहीं  क्योंकि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम लेकिन सबसे खास बात लॉकडाउन के अंदर अगर ऐसे हालात गरीबों का निवाला कोई अपने हलक से नीचे कैसे उतार सकता है और अगर उतार लिया तो सोच लीजिए अब तक सरकार की योजनाओं का दुरुपयोग कर शहर के कितने ही लोगों ने चुना लगाया होगा*

*आखिर क्यों बने कुछ लोग भुखमरी के मोहताज*

*बचपन से सुनता आ रहा हूं जैसे कि कोई गरीब चने खाए तो भूख लगी होगी और आमिर खाए तो शौक से खाते हैं*

*फायदे का सौदा हो तो अमीरों का शोक गरीबों के लिए आफत जैसे कि नशा मुक्ति अभियान में दो  रास्ते अलग-अलग चल निकले लेकिन अगर योजनाओं की बात की जाए तो दोनों ही खोखले नजर आते हैं वजह  योजनाएं नहीं वजह सोचने की है जैसे कि एक गरीब सरकारी योजनाओं का लाभ लेकर शासकीय दुकान से गेहूं चावल और केरोसिन पाकर पीने के चक्कर में  बेचते हुए घर पर इंतजार कर रहा एक परिवार को भी नशे की लत में होने के बाद दुश्मन समझ बैठता है ऐसे ही कहीं नजारे आपको शासकीय शराब की दुकान के बाहर देखने को मिल जाएंगे जो कि दिन भर मेहनत मजदूरी करने के बाद अपने परिवार के बारे में इतना सोचते होंगे की ज्यादा  नशीला सेवक करने के बाद  लड़खड़ा कर  घर तक पहुंच जाएंगे  और घर जाकर  अपने परिवार को तकलीफ देकर कहेंगे कि  कुछ खाने को है अन्नदाता बेचने के बाद*

*और जो सच में गरीब है उसके पास ना सिफारिश है ना पैसे हैं*

*बड़ी चिंता का विषय है यहां शहर में सिफारिश से होता है काम वर्ना लाइन लग जाती है गरीबों की और भीड़ से *(सिफारिश)*शब्द निकालकर अपनी कमाई पर ध्यान देकर अपना काम करते हुए जेब में हाथ डालकर गरीबों के लिए अगली तारीख क्योंकि जो इतना गरीब होता है ना तो उसके पास मोबाइल होता है कुछ बुजुर्ग माताएं दिनभर भटकने के बाद यह सोचकर घर चली जाती है कि अगले दिन अपना काम होगा *लेकिन अधिकारी के रवैया से तो ऐसा लगता है जैसे कि अपना काम बनता भाड़ में जाए गरीब जनता*

*हर अधिकारी को सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि मातृभूमि के प्रति थोड़ी सी ईमानदारी रखें वरना कसम है तुम्हें उस मातृभूमि की जो किसी ना किसी रूप में हर के घर के अंदर है कभी मां कभी बेटी तो कभी जीवनसाथी*

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