पलायन बना अंचल के लिए अभिशाप, सरकारों को नहीं जिलेवासियों की समस्याओं से सारोकार
झाबुआ (अली असगर बोहरा) - इस वर्ष मूसलाधार बारिश हुई है, जलस्त्रोत लबालब है लेकिन इन सबके बीच झाबुआ जिले से काम की तलाश में यहां के श्रमिक ग्रामीण-महिलाओं का पलायन जारी है। न केवल पलायन जारी है बल्कि जिलेभर के सुदूर ग्रामीणों से ग्रामीण श्रमिक महिला-पुरुष अपने परिवार, नौनिहालों को लेकर गुजरात-राजस्थान एवं मप्र के मालवा की ओर रुख कर अपना व अपनी परिवार का पालन पोषण कर रहे हैं।
मजेदार बात तो यह है कि गरमी के दिनों में पलायन के कारण समझ में आते हैं क्योंकि गरमी में अंचल में पानी की कमी होती है और इस दौरान खेती भी नहीं होती और क्षेत्र के किसान मजदूर बेरोजगार होते हैं लेकिन बारिश के दिनों में बस-ट्रेन-निजी वाहनों से मजदूरों का पलायन करना समझ से परे हैं। दरअसल, पलायन की असल वजह ग्रामीणों को जिले में वह चाहते हैं उनकी मजदूरी नहीं मिल पाती। इसलिए बारिश के दिनों में भी गुजरात, राजस्थान में झाबुआ जिले श्रमिकों की खासी मांग है यहां के श्रमिक मेहनतकश होने के साथ इमानदार भी होते हैं इसलिए ठेके पर मजदूरी करने वाले कॉन्ट्रेक्टरों की यह पहली पसंद है। इसलिए अधिक रुपयों का लालच देकर वे यहां से इन मजदूरों को ले जा रहे हैं। यहां के श्रमिक मकान निर्माण के अच्छे कारीगर होने के साथ ही खेती-बाड़ी के कार्यों में माहिर होना भी प्रमुख कारण है। वहीं सूत्र बताते हैं कि जिले में मजदूरों को निरंतर कार्य नहीं मिल पाता है और गुजरात व अन्य राज्यों में उन्हें महीने-छह माह तक का निरंतर कार्य मिल जाता है और प्रतिदिन की मजदूरी भी जिले में मिलने वाली मजदूरी से अधिक होती है। इसलिए यहां से कामकाजी श्रमिक झाबुआ जिले के मुकाबले अन्य राज्यों की ओ रुख करना पसंद करते हैं। वैसे चुनाव में सभी पार्टिया ग्रामीणों के हित की बात तो करती है और उनके घोषणा पत्र में कई तरह के लोक-लुभावने वादे रहते हैं लेकिन शायद ही किसी पार्टी ने ग्रामीण बहुसंख्यक वर्ग में पलायन का मुद्दा अपने मेनिफेस्टों में शामिल किया हो। जबकी जिले के अंचलों के सुदूर ग्रामों के नागरिकों के लिए पलायन अभिशाप बन चुका है। क्योंकि ग्रामीण जब पलायन के लिए जाते हैं तो वे अपने पत्नियों को भी अपने साथ ले जाते हैं तो मजबूरन उन्हें अपने नौनिहालों को भी अपने साथ ले जाना पड़ता है, इससे बच्चों के लालन-पालन के साथ उनकी पढ़ाई भी प्रभावित होती है और कई बच्चे अचानक हुए बदलाव के साथ इसे ही अपनी जिंदगी मान लेते हैं और वे बचपन-लड़कपन की हालत में अपने आपको मजदूरी के दल-दल में धकेल देते हैं और रुपए कमाने की लालच में परिजन भी अपने बच्चों को मजदूरी करवाते हैं जिससे सुदूर अंचल के बच्चे अभी ज्ञान रूपी प्रकाश से अधूरे हैं।
श्रमिकों के पलायन का इन्हें मिलता है लाभ
श्रमिक जब मजदूरी की तलाश में अन्य राज्यों व शहरों की ओर रुख कर जाते हैं तो इसका लाभ स्कूलों-आंगनवाडिय़ों में मध्यान्ह भोजन चलाने वाले समूहों को मिलता है। आंगनवाड़ी व स्कूलों में तयशुदा उपस्थित पंजीयन में इन बच्चों का का नाम नहीं हटाया जाता है और उनकी उपस्थिति दर्शाकर समूह व इसके जिम्मेदार अपनी जेबे गरम करने में जुटे हुए हैं।
सरकारों को नहीं पड़ता कोई फर्क
एक ओर तो सरकारे ग्रामीणों के लिए कई जनकल्याणकारी योजनाएं चलाने का दंभ भरती है, लेकिन भाजपा हो या कांग्रेस वर्ष 2020 आने को कुछ दिन ही शेष रह गए हैं लेकिन अंचल से वर्षों से जारी पलायन के लिए कोई स्पष्ट नीति तय नहीं कर पाई है। वही मनरेगा जैसे काम जिले में बंद हो चुका है। वहीं जिले में चलने वाले निर्माण कार्य जैसे तालाब, पुल-पुलिया, सड़क निर्माण में अन्य राज्यों के बड़े कॉन्ट्रैक्टर यह कार्य अपने धन-हैसियत के बल पर ले लेते हैं और मशीनों का धड़ल्ले से उपयोग कर यह कार्य करते हैं जिससे जिले के वे श्रमिक अपने आपको ठगा महसूस करते हैं जिनके परिवार का गुजरा सिर्फ और सिर्फ मजदूरी पर टिका है इसलिए मजबूरन जिले में कार्य नहीं मिलने के चलते वे पलायन का एक मात्र रास्ता चुनते हैं और इन सबके बीच सरकारें जिन मजदूरों को लाभ देने के उद्देश्य यह कार्य चलाए जाते हैं उनको बाहरी बड़े रसुखदार कॉट्रैक्टर पानी फेर देते हैं। सरकार को चाहिए कि वे जब भी जिले में निर्माण कार्य चलाए उनमें बाहरी मजदूरी व मशीनों से कार्य न चलाते हुए जिले के मजदूरों को कार्य दे ताकि कुछ हद तक तो सही, जिले के श्रमिकों का भला हो और उन्हें अपना जिला, घर, छोड़कर पलायन न करना पड़े।