ज्ञानी संसार को स्वर्ग बनाकर स्वयं आनंद के साथ जीकर दूसरों को भी शांति से जीने देते है - प्रन्यास प्रवर जिनेन्द्र विजयजी
झाबुआ (मनीष कुमट) - जैन तीर्थ श्री ऋषभदेव बावन जिनालय में 11 अक्टूबर, शुक्रवार को सुबह आचार्य श्रीमद् विजय नरेन्द्र सूरीश्वरजी मसा ‘नवल’ ने मांगलिक सुनाकर श्वेतांबर जेन श्री संघ के वयोवृद्ध संरक्षक दुलीचंद वागरेचा के स्वर्गावास पर कहा कि यह शरीर किराए का घर है, टूटी की बूटी नहीं है, इसलिए मनुष्य को पल-पल धर्माचरण करते हुए जीवन को सफल करके परलोक को सुधारना चाहिए।
आचार्य श्रीजी ने आगे कहा कि हम सभी को शोक निवारण करके मृत्यु निश्चित है, का स्मरण (ध्यान) रखते हुए नश्वर काया, क्षण भगुर माया को छोड़कर धर्म की शीतल छाया में जीकर पाप मार्ग को छोड़कर पुण्य कमाई करना चाहिए। तन में व्याधि हो जाना कर्मजन्य है। मन में समाधि रहना धर्मजन्य सुफल है।
ज्ञान जीवन को आनंदमय बनाकर समस्त विषाद समाप्त करता है
प्रन्यास प्रवर श्री जिनेन्द्र विजयजी ‘जलज’ ने नवपद का विवेचन करते हुए बताया कि सातवां पद सम्यग ज्ञान पद है। ज्ञान जीवन को आनंदमय बनाकर समस्त विषाद को समाप्त कर देता हे। पांच ज्ञान के 51 भेद होते है, इसलिए भगवान की आरती में पांच दीपक रखे जाते है। ज्ञान से दुःख टल जाते है। अज्ञान ही समस्त दुखों का मूल है। ज्ञान स्व और पर का कल्याण करने में समर्थ है। ज्ञानवान भोजन में कभी अभक्ष्य का भक्षण नहीं करते है। मनुष्य को मदिरापान और मांस भक्षण करके जैसे पापाचारी-दुराचारों से बचने के लिए ज्ञान नेत्र आवश्यक हे। अज्ञानी जीवन को नरक बना लेते है। ज्ञानी संसार को स्वर्ग बनाकर आनंद से स्वयं जीते है एवं दूसरों को भी शांति से जीने देते है।
ओम रीं श्री नमो नाणंस्स’ के आराधकों ने किए जाप
बावन जिनालय में शुक्रवार को सुबह 6 बजे सिद्ध चक्र के ंयंत्र पर पंचामृत से अभिषेक किया गया। बाद केसर पूजन हुई। सिद्ध च्रक्रजी की स्नात्र पूजन पढ़ाई गई। आराधकां द्वारा सातवे दिन 51 स्वस्तिक, 51 खमासमणे, 51 लोग्सय का काउसग्ग कर ‘ओ रीं श्री नमो नाणंस्स’ के जाप किए गए। 20 माला अर्थात 2160 बार जाप किया गया। तत्पश्चात् सिद्ध चक्र की नवपदों की सामूहिक आरती हुई। दोपहर में आयंबिल का सभी आराधकों ने लाभ लिया। शाम को सामूहिक प्रतिक्रमण हुआ। 12 अक्टूबर, शनिवार को आठवे दिन आराधक ‘चारित्र’ पद की आराधना करेंगे।
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