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विंध्य की राजनीति: बीजेपी के लिए वरदान या अभिशाप? Aajtak24 News |
रीवा - राजनीति के उस अदृश्य नियम, जहाँ वरिष्ठता सहयोगियों के विकास को अवरुद्ध कर देती है, की एक और कहानी मध्य प्रदेश के विंध्य क्षेत्र में लिखी जा रही है। विंध्य क्षेत्र की राजनीतिक धरती पर एक बार फिर वही दृश्य उभर रहा है जिसके दर्दनाक परिणाम कांग्रेस आज तक भोग रही है। पूर्व में इसी क्षेत्र में कांग्रेस के दो दिग्गज, श्रीनिवास तिवारी और अर्जुन सिंह, ने अपने इतने लंबे और प्रभावशाली छत्रछाया में दल को इतना अधिक आच्छादित कर दिया कि कोई दूसरा प्रतिभाशाली नेता पनप ही नहीं पाया। उनके जाने के बाद पार्टी को एक ऐसी नेतृत्व विहीनता का सामना करना पड़ा, जिसकी परिणति क्षेत्र में उसके प्रायः विलुप्त होने के रूप में सामने आई। विडंबना यह है कि भारतीय जनता पार्टी बीजेपी, जो अपने सामूहिक नेतृत्व और संगठनात्मक शक्ति के लिए जानी जाती है, उसी जाल में फंसती प्रतीत हो रही है। पिछले कुछ वर्षों से डिप्टी सीएम राजेन्द्र शुक्ल का कद इतना विशाल हो गया है कि उनकी छाया में विंध्य की बीजेपी का कोई अन्य चेहरा न के बराबर नजर आता है।
एकतरफा प्रभुत्व और द्वितीय पंक्ति का सिकुड़ना!
यह स्थिति कोई आकस्मिक नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि पार्टी के प्रदेश नेतृत्व ने जानबूझकर शुक्ल को क्षेत्र का एकमात्र स्तंभ बना दिया है। इस नीति का परिणाम यह हुआ है कि पार्टी के भीतर का कोई भी नेता, चाहे वह कितना ही अनुभवी या लोकप्रिय क्यों न हो, शुक्ल की सीमाएं निर्धारित करने या उनके समानांतर अपनी पहचान बनाने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। यह स्थिति तब और भी चिंताजनक हो जाती है जब हम विंध्य में बीजेपी की सर्वव्यापी पकड़ को देखते हैं। 30 विधानसभा सीटों में से 26 पर जीत दर्ज करने वाली पार्टी के पास कई ऐसे विधायक हैं जो तीन, चार, यहाँ तक कि पाँच- छह बार चुनाव जीतकर आए हैं। किंतु, हैरानी की बात यह है कि इतने लंबे अनुभव और जनाधार के बावजूद उनकी राजनीतिक हैसियत एक साधारण विधायक से आगे नहीं बढ़ पाई है।
जनता की उपेक्षा और प्रशासनिक अवरोध!
इस एकछत्र नेतृत्व का सबसे गहरा और दुखद प्रभाव आम जनता पर पड़ रहा है। ऐसा लगता है कि डिप्टी सीएम का दरबार इतना दुर्गम हो चुका है कि विंध्य से आने वाले अपने ही प्रतिनिधियों तक की पहुँच वहाँ नहीं है। शुक्ल के कार्यालय और व्यक्तिगत स्टाफ जनसंपर्क के मार्ग में एक अदृश्य दीवार खड़ी कर देते हैं, जिसे पार करना एक साधारण नागरिक या यहाँ तक कि एक स्थानीय कार्यकर्ता के लिए भी असंभव प्रतीत होता है। परिणामस्वरूप, विंध्य की जनता, जिसने बीजेपी को भारी बहुमत से जिताया, आज रीवा से भोपाल तक दर- दर की ठोकरें खाने को मजबूर है। वे अन्य मंत्रियों और नेताओं के दफ्तरों का रुख करते नजर आते हैं, जहाँ उनकी समस्याओं को सुनने वाला कोई नहीं होता, क्योंकि उनके क्षेत्र का मामला 'उच्चस्तर' पर सीमित कर दिया गया है।
भविष्य के लिए एक गंभीर चेतावनी!
इस संकट की गूँज पार्टी के भीतर भी सुनाई दे रही है। रीति पाठक, गिरीश गौतम, दिव्यराज सिंह, नागेन्द्र सिंह जैसे सक्षम नेता अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, किंतु शुक्ल के प्रभुत्व के आगे उनकी आवाज़ दब- सी गई है। यह स्थिति अत्यंत नाजुक है। जनता की सहनशीलता की एक सीमा होती है। राजनीतिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी किसी दल ने अपने भीतर लोकतंत्र को दबाया है और द्वितीय पंक्ति के नेतृत्व के विकास को अनदेखा किया है, उसे लंबे समय में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। बीजेपी के लिए यह आत्ममंथन का क्षण है। क्या वह विंध्य में अपनी इस विषम नीति को जारी रखकर उसी भूल को दोहराना चाहेगी जिसने कांग्रेस को पाटलिपुत्र के पथ पर धकेल दिया? या फिर वह समय रहते अपनी रणनीति में संशोधन करके क्षेत्र में एक सामूहिक, सशक्त और जनसमर्थित नेतृत्व विकसित करने का मार्ग प्रशस्त करेगी? आने वाला समय इस प्रश्न का उत्तर देगा, लेकिन इतना तो तय है कि जनता की आवाज़ को अनसुना करने का इतिहास कभी भी दयालु नहीं रहा है।