राजनीति का बबूलवन' बन रही भाजपा? आयातित नेताओं से बढ़ रही है कलह Aajtak24 News

राजनीति का बबूलवन' बन रही भाजपा? आयातित नेताओं से बढ़ रही है कलह Aajtak24 News

रीवा - राजनीतिक गलियारों में इन दिनों एक गंभीर बहस छिड़ी हुई है कि क्या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में दलबदल कर आने वाले नेता पार्टी की मूल संरचना और संस्कृति को कमजोर कर रहे हैं? रीवा जिले के त्यौंथर विधानसभा क्षेत्र में हाल ही में घटी एक घटना ने इस चर्चा को और हवा दे दी है, जहाँ एक सरकारी कार्यक्रम के पोस्टर से उपमुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ला और अन्य वरिष्ठ नेताओं की तस्वीरें गायब थीं। इस घटना को मात्र एक तकनीकी चूक नहीं, बल्कि पुराने और समर्पित कार्यकर्ताओं के भीतर पनप रहे 'मूक, परन्तु मुखर विद्रोह' के रूप में देखा जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राजनीति का भूगोल और रणनीतियाँ भले ही बदल जाएँ, लेकिन व्यक्ति के संस्कार नहीं बदलते। ये संस्कार उसके अंतर्मन में गहरे तक अंकित होते हैं और अनुकूल समय आने पर प्रकट हो ही जाते हैं। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में जिस तरह से भाजपा ने विरोधी दलों से आए नेताओं को महत्वपूर्ण पद और जिम्मेदारियाँ दी हैं, उससे पुराने और नए के बीच एक मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक टकराव पैदा हो गया है। लेखक इसे 'राजनीति का बबूलवन' कहते हैं, जिसका फल अब पार्टी को भोगना पड़ रहा है।

लेख में इस बात पर जोर दिया गया है कि जिस रणनीति के तहत पार्टी ने विरोधी दलों के नेताओं को 'आयातित' कर उन्हें प्रमुखता दी, उसी का परिणाम अब सामने आ रहा है। ये नेता, जिनकी राजनीतिक कार्यशैली और संस्कार भाजपा के मूल सिद्धांतों से मेल नहीं खाते, आज पार्टी के भीतर ही एक अलग धड़ा बना रहे हैं। इससे वे पुराने कार्यकर्ता, जिन्होंने दशकों तक भाजपा की विचारधारा और संगठन के लिए संघर्ष किया है, स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। उनके मन में यह तीखा व्यंग्य है कि "अच्छा हुआ, जिसने कांटे बोए थे, उसे ही अब उसका फल भोगना पड़ रहा है। लेखक के अनुसार, इस पूरे प्रसंग में 'आत्मा' की अवधारणा बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। "आत्मा की आत्मा ही जाने" की लोकोक्ति यहाँ सटीक बैठती है। एक कांग्रेसी नेता, जिसने अपना पूरा राजनीतिक जीवन कांग्रेस की विचारधारा में बिताया हो, वह रातों-रात भाजपा के संगठनात्मक ढाँचे और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान नहीं हो सकता। उसकी 'आत्मा' में वही पुराने संस्कार विद्यमान रहते हैं, जो समय-समय पर प्रकट होकर संगठन के लिए समस्या उत्पन्न करते हैं। यह स्थिति लंबे समय में पार्टी में टकराव, असंतोष और विघटन का कारण बन सकती है।

भाजपा जैसे मजबूत और अनुशासित संगठन के लिए यह एक गंभीर चुनौती है। राजनीतिक लाभ के लिए दलबदलुओं को अपनाना एक रणनीति हो सकती है, लेकिन उन्हें इतनी प्रमुखता देना कि मूल कार्यकर्ताओं की भावनाएँ आहत हों, एक दीर्घकालिक जोखिम है। लेखक निष्कर्ष निकालता है कि 'आयात' से अल्पकालिक लाभ मिल सकता है, लेकिन 'आत्मा' के साथ समझौता लंबे समय में पार्टी की एकता को कमजोर कर सकता है।

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