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रीवा के हिनौती स्कूल में मध्यान्ह भोजन योजना में भ्रष्टाचार के आरोप, वायरल वीडियो से खुली पोल Aajtak24 News |
रीवा - रीवा जिले के गंगेव जनपद अंतर्गत हिनौती स्कूल में चल रहा मध्यान्ह भोजन योजना को लेकर विवाद यह साफ संकेत देता है कि कुपोषण मिटाने की महत्वाकांक्षी सरकारी योजनाएँ अब बच्चों तक पोषण पहुँचाने के बजाय राजनेताओं, अधिकारियों और स्व-सहायता समूहों के बीच वर्चस्व की लड़ाई का अखाड़ा बन गई हैं। इस विवाद ने योजना में गहरे तक पैठ चुके भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप को उजागर कर दिया है।
नए और पुराने समूहों में टकराव
इस पूरे विवाद की शुरुआत तब हुई जब जय अंबे और रागिनी महिला स्व-सहायता समूह ने आरोप लगाया कि उन्हें शासन द्वारा भोजन वितरण की जिम्मेदारी मिलने के बावजूद, स्कूल प्रशासन अभी भी पुराने समूहों – रमा और साई बाबा – से ही काम करवा रहा है। ये दोनों समूह कथित तौर पर पिछले 14 वर्षों से इस व्यवस्था पर काबिज हैं, जैसे कि यह कोई सरकारी योजना नहीं, बल्कि उनकी निजी संपत्ति हो। नए समूहों का कहना है कि उन्हें मजबूरन अपने घर से अनाज लाकर बच्चों के लिए भोजन बनाना पड़ रहा है। आरोप है कि विद्यालय के प्राचार्य सुखराम कोल ने खाद्यान्न का उठाव अपने कब्जे में रखकर मनमानी की, जिससे नए समूहों को काम शुरू करने में बाधा आई।
विधायक पर लगे राजनीतिक संरक्षण के आरोप
इस मामले में सबसे गंभीर आरोप मनगवां के विधायक नरेंद्र प्रजापति पर लगे हैं। नए समूहों ने उन पर नियमों की अनदेखी कर पुराने समूहों को बचाने की कोशिश करने का आरोप लगाया है। समूहों का दावा है कि विधायक ने स्वयं कहा है कि "व्यवस्था पीटीए के हाथों में ही रहे," ताकि रमा और साई बाबा समूह को लाभ मिलता रहे। इसी बीच, एक वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसकी प्रामाणिकता की आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन इसमें सत्ता और प्रशासन पर बच्चों के निवाले हड़पने के गंभीर आरोप लगे हैं। सूत्रों का दावा है कि इस योजना का लाभ गरीब और कुपोषित बच्चों तक पहुँचने के बजाय सत्ता से जुड़े कार्यकर्ताओं और उनके परिजनों तक ही सीमित है। अनुमान है कि जिले में लगभग 80 प्रतिशत स्व-सहायता समूह सत्ता से जुड़े लोगों के कब्जे में हैं।
नियमों की अनदेखी और धांधली
जांच में कई चौंकाने वाली अनियमितताएं सामने आई हैं। आरोप है कि रमा समूह की अध्यक्ष कलावती सिंह की उम्र 60 वर्ष से अधिक है और वे एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता की मां हैं। नियमानुसार, किसी सरकारी नौकरीपेशा परिवार का सदस्य समूह का अध्यक्ष नहीं हो सकता, फिर भी वर्षों से इस नियम की खुलेआम अनदेखी की जा रही है। इसके अलावा, पीटीए (अभिभावक-शिक्षक संघ) के समय में 8 रसोइयों का पंजीयन दिखाया गया था, जबकि मौके पर केवल 3-4 ही कार्यरत थे। बाकी रसोइयों का मानदेय कथित तौर पर पीटीए और प्राचार्य की जेब में जा रहा था। ग्राम पंचायत सरपंच से लेकर जिला पंचायत और कलेक्टर तक की जवाबदेही तय होने के बावजूद, इन गंभीर आरोपों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है, जिससे ग्रामीणों में नाराजगी बढ़ रही है।
समस्या एक स्कूल की नहीं, व्यापक तंत्र की है
ग्रामीणों का कहना है कि ये योजनाएं नेताओं और अधिकारियों की "संपत्ति" बन चुकी हैं। काल्पनिक रिपोर्टें बनाकर लाभ उठाया जा रहा है, जबकि वास्तविकता में बच्चों को संतुलित आहार तक नहीं मिल रहा है। यह विवाद केवल एक विद्यालय तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस व्यापक तंत्र को उजागर करता है जहाँ कुपोषण मिटाने के नाम पर चल रही योजनाएं भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार हो चुकी हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि जिला पंचायत सीईओ नियमों का पालन करते हैं या राजनीतिक दबाव में पुराने समूहों को ही लाभ पहुँचाया जाता है।