रीवा-मऊगंज में दोहरे संकट से त्रस्त जनजीवन: बाढ़ और बंदरों का आतंक, प्रशासन पर निष्क्रियता का आरोप aarop Aajtak24 News

रीवा-मऊगंज में दोहरे संकट से त्रस्त जनजीवन: बाढ़ और बंदरों का आतंक, प्रशासन पर निष्क्रियता का आरोप aarop Aajtak24 News

रीवा/मऊगंज - जहां गर्मी में लोग बूंद-बूंद पानी को तरसते थे, वहीं अब बारिश के दिनों में रीवा और नवगठित मऊगंज जिले की आबादी बाढ़ की चपेट में आकर त्राहिमाम कर रही है। इसे केवल प्रकृति का प्रकोप नहीं, बल्कि वर्षों से शासन-प्रशासन की लापरवाही, अदूरदर्शिता और केवल कागजों पर सिमटी योजनाओं का सीधा परिणाम माना जा रहा है। बाढ़ से हुए नुकसान के साथ-साथ, अब बंदरों का बढ़ता आतंक ग्रामीणों के लिए एक और बड़ा संकट बन गया है, जिस पर सरकार की चुप्पी से गहरा रोष है।

बाढ़ का कहर: अधूरी निकासी व्यवस्था ने बढ़ाई मुश्किलें

रीवा जिले के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में जल निकासी की समुचित व्यवस्था न होने के कारण वर्षा जल का बहाव रुक जाता है, जिससे नाले उफान पर आकर गलियों और घरों में घुस जाते हैं। यही स्थिति मऊगंज जिले की कई तहसीलों में भी देखने को मिल रही है, खासकर मनगवां, गढ़, बाबूपुर, डगर-दुआ और पंगड़ी जैसे गांवों में हालात बद से बदतर हो गए हैं। बाढ़ के कारण कई कच्चे और जर्जर मकान बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। कई स्थानों पर मकानों की दीवारें गिर गईं, छतें टपकने लगीं और लोग अपने ही घरों में रात बिताने से डर रहे हैं। जिनके पास पक्के मकान नहीं हैं, वे अपने परिवार के साथ रिश्तेदारों या पंचायत भवनों में शरण लेने को मजबूर हैं। ग्रामीणों का आरोप है कि जल निकासी की परियोजनाएं वर्षों से लंबित पड़ी हैं और जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में आधारभूत संरचना विकसित नहीं की गई। नदियों और नालों के किनारों पर हुए अतिक्रमण को बाढ़ का एक मुख्य कारण बताया जा रहा है। प्रशासन केवल 'सर्वे' तक ही सीमित है, जबकि पुनर्वास और स्थायी समाधान की कोई स्पष्ट कार्ययोजना अब तक सामने नहीं आई है।

बंदरों का आतंक: छतों को तोड़ रहे, कर रहे हमला

बाढ़ की मार झेल रहे लोगों को अब बंदरों के आतंक ने और ज्यादा त्रस्त कर दिया है। बाबूपुर, डगर-दुआ, पंगड़ी और गढ़ क्षेत्र के ग्रामीणों का कहना है कि बंदरों की संख्या बेतहाशा बढ़ चुकी है। ये बंदर न केवल घरों की छतों को तोड़ रहे हैं, बल्कि बच्चों और महिलाओं पर हमला करने से भी नहीं चूकते। खासकर देसी खप्पर से बने पुराने घरों की छतें बंदरों के उछलने-कूदने से टूट रही हैं, जिससे कई मकान गिरने की कगार पर हैं। ग्रामीणों को भय है कि किसी दिन बड़ी दुर्घटना हो सकती है, जिससे जनहानि होना तय है। ग्रामीणों में इस बात को लेकर भी रोष है कि आवारा मवेशियों की समस्या पर गौशालाएं बनाकर ध्यान दिया गया, वहीं बंदरों के आतंक को लेकर शासन-प्रशासन ने अब तक कोई ठोस नीति नहीं बनाई है। न तो वन विभाग ने कोई योजना प्रस्तुत की है और न ही स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने इस गंभीर मुद्दे को गंभीरता से उठाया है।

व्यवस्था पर सवाल: कब मिलेगा स्थायी समाधान?

रीवा और मऊगंज के ग्रामीण क्षेत्रों में यह पहला अवसर नहीं है जब प्राकृतिक आपदा ने लोगों की कमर तोड़ी हो। लेकिन दुखद यह है कि हर बार प्रशासन केवल "सर्वे" और "मुआवजे की प्रक्रिया" जैसे शब्दों का आश्वासन देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है। अब सवाल यह है कि क्या सरकार बाढ़ और बंदरों के इस दोहरे संकट से प्रभावित जनता की पुकार सुनेगी? या फिर इन ज्वलंत मुद्दों को भी किसी अगली आपदा के हवाले कर दिया जाएगा, जहाँ सिर्फ आश्वासन और सर्वे का खेल चलता रहेगा? जनता स्थायी समाधान की उम्मीद लगाए बैठी है।


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