भारत में दोहरे चरित्र का संकट, क्या हम सच में सनातन धर्म के सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं he Aajtak24 News |
रीवा - आज के भारत में एक गहरी और महत्वपूर्ण समस्या उभरकर सामने आ रही है, जो सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में दोहरे चरित्र का रूप ले चुकी है। एक ओर, भारत सरकार और विपक्षी दल सनातन धर्म की बात करते हैं, उसकी महिमा का गुणगान करते हैं, लेकिन दूसरी ओर, उनके कार्यों और नीतियों में ऐसा कोई स्पष्ट प्रतिबिंब नहीं दिखता। यह दोहरा चरित्र केवल शब्दों तक सीमित नहीं है, बल्कि वह भारतीय राजनीति और समाज में गहरे बदलाव की ओर इशारा करता है, जिससे कई सवाल उठते हैं, खासकर जब हम सरकार की योजनाओं और नीतियों पर विचार करते हैं। क्या हम सच में सनातन धर्म के उन सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं, जिन्हें हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर मानते हैं?
सरकारी योजनाओं में दो संतान नीति का अभाव
भारत में सरकारी योजनाएं समाज के हर वर्ग को लाभ पहुंचाने का दावा करती हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना, निशुल्क अनाज योजना, लाडली बहन योजना, आयुष्मान भारत कार्ड जैसी योजनाओं ने लाखों लोगों की जीवनशैली में बदलाव लाया है। लेकिन इन योजनाओं में दो संतान नीति का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं दिखता। यह नीति सरकारी कर्मचारियों के लिए लागू की जाती है, लेकिन जनकल्याण की योजनाओं में इसे क्यों लागू नहीं किया जाता? अगर इस नीति को कर्मचारियों पर लागू किया जा सकता है, तो बाकी नागरिकों के लिए इसे लागू करने में सरकार को कोई हिचकिचाहट क्यों है?
यहां सवाल यह उठता है कि क्या सरकार अपने नियमों को समान रूप से लागू कर रही है? क्या गरीब और मध्यम वर्ग के नागरिकों के लिए अलग मापदंड है? अगर सरकार का उद्देश्य जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करना है, तो उसे यह नीति हर वर्ग पर लागू करनी चाहिए। इससे न केवल समाज में असमानता की भावना को खत्म किया जा सकता है, बल्कि समाज में एकता और सामंजस्य भी स्थापित किया जा सकता है।
जनसंख्या असंतुलन और सरकार की खामोशी
आजकल सरकार और विपक्ष इस बात की चिंता व्यक्त कर रहे हैं कि देश के एक हिस्से की जनसंख्या बढ़ रही है, जबकि दूसरे हिस्से में जनसंख्या घट रही है। यह असंतुलन न केवल सामाजिक अस्थिरता पैदा कर सकता है, बल्कि इससे देश के सुरक्षा परिदृश्य और विकास की दिशा पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। अगर यह असंतुलन इतना गंभीर है, तो सरकार को इसके समाधान के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।
यदि हम एक समान और प्रभावी जनसंख्या नियंत्रण नीति की बात करें, तो क्यों न दो संतान नीति को हर नागरिक के लिए अनिवार्य कर दिया जाए? यह नीति न केवल देश के विकास को तेज करेगी, बल्कि इससे असंतुलन को भी समाप्त किया जा सकेगा। अगर यह नीति सरकारी कर्मचारियों पर लागू हो सकती है, तो बाकी नागरिकों पर क्यों नहीं? क्या यह दोहरा मानदंड नहीं है?
सनातन धर्म में पुत्र की प्राथमिकता: सामाजिक दृष्टिकोण और वास्तविकता
भारत में सनातन धर्म में पुत्र को विशेष महत्व दिया जाता है। यह विश्वास है कि पुत्र के होने से पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है, और यह समाज के बड़े हिस्से में व्याप्त है। हालांकि, आज के समय में यह परंपरा कितनी प्रासंगिक है, यह एक बड़ा सवाल है। क्या आज के लोग, जो सनातन धर्म के सिद्धांतों का पालन करने का दावा करते हैं, वे खुद उस आदर्श को अपना रहे हैं, जो सनातन धर्म में बताए गए हैं?
आजकल कई परिवारों में यह दुविधा होती है कि अगर उनके पास तीन संतानें हैं, तो क्या उन्हें नौकरी या सामाजिक स्थिति से समझौता करना पड़ेगा? क्या यह दोहरा मानदंड नहीं है कि एक ओर हम सनातन धर्म की बात करते हैं, लेकिन दूसरी ओर सरकार और समाज द्वारा लागू किए गए नियम इसके विपरीत होते हैं? सनातन धर्म का उद्देश्य तो समाज में समरसता और शांति स्थापित करना है, लेकिन क्या वर्तमान समाज और सरकार इसके सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर रहे हैं?
बेरोजगारी, महंगाई और धर्म परिवर्तन
आजकल बेरोजगारी, महंगाई और अन्य आर्थिक परेशानियाँ लोगों को धर्म परिवर्तन करने के लिए मजबूर कर रही हैं। जब लोग केवल आर्थिक लाभ के लिए धर्म बदलते हैं, तो इससे समाज में अस्थिरता और असमानता का माहौल पैदा होता है। धर्म परिवर्तन से जुड़े लोग अक्सर यह सवाल उठाते हैं कि क्या उन्हें अब उसी धर्म के तहत मिलने वाली सरकारी योजनाओं और सुविधाओं का लाभ मिलेगा, या उन्हें वह योजनाएं मिलनी चाहिए जो किसी अन्य नागरिक को मिलती हैं?
यहां एक और बड़ा सवाल उठता है कि धर्म परिवर्तन के बाद उन व्यक्तियों को समाज में किस तरह की पहचान मिलेगी? क्या धर्म परिवर्तन के बाद उन्हें नए धर्म के हिसाब से ही योजनाओं का लाभ मिलना चाहिए, या फिर वही योजनाएं मिलनी चाहिए जो एक सामान्य नागरिक को मिलती हैं? यह सवाल सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है, क्योंकि इससे सामाजिक असमानता बढ़ सकती है।
समाज में जातिवाद और विघटन का खतरा
भारत में जातिवाद और अन्य विभाजनकारी तत्व समाज में बड़ी समस्या बन चुके हैं। राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर जातिवाद को खत्म करने की बात की जाती है, लेकिन असल में यह समस्या कहीं न कहीं विद्यमान रहती है। आजकल लोग अपनी जाति, धर्म और वर्ण व्यवस्था के आधार पर योजनाओं का लाभ उठाने के लिए उसका दुरुपयोग करने लगे हैं। जातिवाद की समस्या को समाप्त करने के लिए सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है, ताकि समाज में समानता और न्याय की भावना को बढ़ावा मिल सके।
जातिवाद केवल एक सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि यह देश की एकता और अखंडता के लिए भी खतरा बन चुका है। इसके कारण समाज में दरारें पैदा हो रही हैं, और लोग अपनी पहचान को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। क्या यह उचित है कि समाज को और अधिक विभाजित किया जाए, जबकि हमें एक मजबूत और सामंजस्यपूर्ण समाज की आवश्यकता है?
समाज में बदलाव की आवश्यकता
समाज में व्याप्त असंतुलन, विघटन और विभाजनकारी तत्वों को दूर करने के लिए जरूरी है कि सरकार और समाज मिलकर एक समान और निष्पक्ष व्यवस्था अपनाएं। अगर हम सच में सनातन धर्म के वास्तविक सिद्धांतों का पालन करना चाहते हैं, तो हमें उन आदर्शों को अपनी नीतियों और योजनाओं में भी उतारना होगा। यह समय है जब हम अपने देश को सामाजिक और धार्मिक असंतुलन से मुक्त करने के लिए गंभीर कदम उठाएं।
हमें यह समझने की आवश्यकता है कि सनातन धर्म का उद्देश्य केवल धार्मिक आस्थाओं का पालन करना नहीं है, बल्कि वह समाज में सद्भावना, समानता और न्याय की भावना को बढ़ावा देना है। यदि हम भारत को एक मजबूत और समृद्ध राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो हमें जातिवाद, आतंकवाद और नक्सलवाद से लड़ते हुए समाज के भीतर सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है।
यह तभी संभव है जब हम सनातन धर्म की सच्चाई को अपने जीवन और नीतियों में उतारें, और समाज के हर वर्ग को समान अवसर और अधिकार मिले। इसके लिए हमें अपनी सोच और नीतियों में बदलाव लाना होगा, ताकि हम एक सशक्त, समृद्ध और समानता आधारित भारत का निर्माण कर सकें।