सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर राष्ट्रपति संज्ञान ले और संवेधानिक ढांचे को बचाने के लिए उठाएं आवश्यक कदम
(ऐसी टिप्पणियों से स्थापित विधिक प्रक्रिया का हुआ स्पष्ट उल्लंघन)
केस के मेरीट्स देखे बिना की गई टिप्पणियों से पूरा देश है स्तब्ध
इंदौर(राहुल सुखानी) - नूपुर शर्मा की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों द्वारा की गई मौखिक टिप्पणियां (जिन्हें पारित आदेश में लिखित रूप नहीं दिया गया है) कानून के मूलभूत सिद्धांतों तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के सर्वथा विपरीत होकर देश की सर्वोच्च न्यायपालिका की साख और विश्वसनीयता को खंडित करने वाली टिप्पणियां है, जिस पर देश के राष्ट्रपति को स्वत संज्ञान लेकर प्रारंभ हो रही गलत परंपरा पर अभी से ही अंकुश लगाना अनिवार्य है,अन्यथा संविधान द्वारा किया गया शक्ति संतुलन एवं पृथक्करणीयता का सिद्धांत पूरी तरीके से ध्वस्त हो जाएगा और यह नहीं किया जाना भविष्य के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। उपरोक्त बातें इंदौर के विधि विशेषज्ञ और अधिवक्ता पंकज वाधवानी ने राष्ट्रपति को प्रेषित मेल में की है और उन्होंने निवेदन किया है कि देश की कार्यपालिक संप्रभु होने के नाते राष्ट्रपति को इस मामले में स्वत संज्ञान लेकर सर्वोच्च न्यायालय की इन टिप्पणियों के संबंध में संविधान की रक्षा हेतु योग्य कदम उठाए जाने चाहिए। एडवोकेट पंकज वाधवानी ने प्रेषित मेल में यह भी स्पष्ट किया कि यह पत्र किसी भी प्रकार से नूपुर शर्मा के समर्थन के लिए नहीं है बल्कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऑफ द रिकॉर्ड बिना मैरिट्ज देखें स्थापित कानूनी प्रक्रिया की अवहेलना एवं देश की संवैधानिक व्यवस्था एवं प्रावधानों की रक्षा के आशय से लिखा जा रहा है।
संविधान पर आस्था रखने वालों के लिए अत्यंत ही चिंताजनक टिप्पणियां
राष्ट्रपति महोदय लिखे पत्र में अधिवक्ता एवं विधि व्याख्याता पंकज वाधवानी ने कहा है कि नूपुर शर्मा के खिलाफ देशभर में विभिन्न राज्यों एवं शहरों में दर्ज एफ आई आर को एक स्थान पर अंतरण किए जाने की याचिका एक सामान्य प्रक्रिया है और आजादी के बाद इस प्रकार की याचिकाएं लगती रही है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 406 के अंतर्गत ऐसी रिलीफ अर्थात उपचार हजारों बार माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा याचिकाकर्ता को अनेक मर्तबा प्रदान किए जाते रहे है, किंतु इसी प्रकार की याचिका में ऐसी टिप्पणीयां, जिसकी अपेक्षा माननीय सर्वोच्च न्यायालय से कदापि नहीं की जा सकती थी, जैसे केस के मैरिट्ज अर्थात गुणागुण को देखे बिना ही व्यक्ति को अपराध के लिए जिम्मेदार मान लेना एवं उदयपुर में हुई नृशंस हत्या के लिए याचिकाकर्ता को ही उत्तरदायी मान लेना यह भारत के संविधान पर आस्था रखने वाले नागरिकों के लिए अत्यंत ही पीड़ादायक है। इस पत्र में भड़काऊ भाषण देने वाले एवं जेहादी हत्या करने वालों का किसी भी प्रकार से कोई भी समर्थन नहीं है किंतु मौलिक सिद्धांतों एवं विधि के नैसर्गिक मूल्य के विपरीत की जाने वाली टिप्पणियों की ओर ध्यानाकर्षण करना ही प्रमुख उद्देश्य है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों ने जिहादियों ने भर दी प्राणवायु
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जिस प्रकार से टिप्पणियां की गई है इसमें बिना ट्रायल के ही याचिकाकर्ता को अपराधी बना दिया है और यह बात इतनी अधिक चिंता का कारण है कि विचारण न्यायालय इन टिप्पणियों से प्रभावित हुए बिना सुनवाई की नहीं कर सकेगी। सबसे बड़ी बात यह है कि उदयपुर के कन्हैया लाल की हत्या करने वाले जिहादियों के लिए सुप्रीम कोर्ट की इस प्रकार की टिप्पणीयों का प्रभाव कितना प्रतिकूल पड़ेगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है ऐसे जिहादी और जघन्य अपराध करने वालों के लिए यह टिप्पणीयां प्राणवायु का काम करेंगी। धार्मिक कट्टरपंथियों एवं जिहादियों द्वारा जो भी विधि विपरीत कार्य जैसे हत्या व जघन्य अपराध कार्य इन टिप्पणियों से अपने बचाव का ढाल बनकर सामने आएगा इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से हत्याकांड एवं अन्य अपराधों के बारे में यह उप धारणा बनेगी की यह समस्त अपराध उकसावे में किये गये है। इन टिप्पणियों को इस प्रकार से बिना संज्ञान में लिए अथवा अंकुश किए बिना बिना ध्यान दिए अथवा हल्के में जाने दिया गया तो भविष्य में यह परंपरा देश के संप्रभुता एकता अखंडता के लिए खतरा बन जाएगी।
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