कूड़े के ढेर पर गुज़र रहा है बचपन
इस आजाद देश में यह कैसी आजादी कूड़े-करकट में सामान ढूंढते नजर आए बच्चे
धामनोद (मुकेश सोडानी) - देश में बुलटट्रेन के संचालन की चर्चा हो रही है, नीव भी पड़ चुकी है, बहुतेरे नगर मेट्रोसिटी बन चुके है, कुछ शीघ्र बनने जा रहें हैं, देश को आजाद हुए भी करीब 72 साल से अधिक हो चुके हैं, लेकिन आज भी धामनोद जैसे शहर में बच्चे कूड़े के ढेरों पर कूड़ा बीनते दिखाई पड़ जाते हैं तो मात्र ताज्जुब ही नहीं होता है बल्कि पूरे मुल्क की तस्वीर की झांकी धुंधली सी नज़र आने लगती है. नगर में कई जगहों पर बच्चे अभी तक स्कूल नहीं जा पा रहें हैं लेकिन सरकारी दावे ऐसे कि जैसे हम विश्व गुरु बनने नहीं बल्कि बन गए हैं
विचारणीय तो यह है कि क्या सच में हमारी सरकारें देश के गरीब,अभाव ग्रस्त नौनिहालों को उनकी मूलभूत आवश्यकता शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन को अभी भी समय पर मुहैया कराने में तमाम जगहों पर नाकाम रही हैं . यह सवाल दिलो दिमाग में तब कौंध जाता है जब धामनोद मे शनिवार के दिन मंडी रोड पर बच्चे कूडे में जरूरत की चीजें बीनते नज़र आये सवाल उठाना लाजमी भी क्यों की जब सूबे धार कीधड़कन कहे जाने वाले धामनोद में ऐसे बच्चे देखे जा सकतें सकतें हैं तो अनुमान लगाया जा सकता है कि देश और प्रदेश की अभी सैकड़ों ऐसी इलाके और बस्तियां ऐसी होंगीं जहां ये नन्हें-मुन्ने बच्चे सड़े-गले कचरे के ढेर से न केवल रोटी की जुगाड़ में अपना बचपन खो रहे हैं बल्कि तरह तरह के घातक रोगों का शिकार होकर असमय काल के गाल में भी शमा रहे है ।
यही ही नहीं बल्कि नगर के अन्य कई क्षेत्रों में भी कमोबेश यही स्थिति देखने को मिल सकती है है,यहां आज भी सड़कों पर, गली-मोहल्ले में दर्जनों बच्चों को कबाड़ चुनते-बीनते हुए आसानी से देखे जा सकते है। ये बच्चे शहर के सड़े-गले कूड़े की बड़े-बड़े ढेरों में से शीशा,प्लास्टिक,लोहा, कागज व गत्ता आदि ढूंढने के लिए पूरे दिन सड़कों पर,गली-मोहल्लें में घूमते नजर आ जाते हैं।कचरे की ढेर में जिदंगी तलाशने वाले के ये बच्चे या तो स्कूल छोड़ देने वाले होते हैं या फिर माता-पिता द्वारा जबरन कबाड़ा चुनने के काम में लगा दिए जाने वाले होते हैं कुछ बच्चे तो ऐसे भी हैं जो कबाड़ नही चुनने पर माता-पिता द्वारा मारे –पीटे भी जाते हैं क्यों कि उनके परिवार के जीवको पार्ज़ां का एक मात्र यही उपाय ही है नगर में हमारे साथियों ने जब कूड़े से कबाड़ बिनने वाले बच्चों से मिलकर उनकी आप बीती व इस काम में लिप्त रहने की बजह जानने की कोसिस की तो कहीं कहीं बड़ी पीड़ा जनक स्थित भी सामने आयी बहुत से बच्चों का कहना था कि जिस दिन वे कबाड़ बिनने नहीं जाते उस दिन उनके परिजनों द्वारा उन्हें बुरी तरह से मारा-पीटा जाता है एवं खाना भी नही दिया जाता हैं जो की बेहद ही शर्मनाक और पीड़ा दायक हरकत से रूबरू कराती है। इतना ही नहीं इनमे कुछ बच्चे यह भी बताते हैं की कभी कभी गली-मोहल्लें में कबाड़ा बिनने के लिए जब वो जाते हैं तो वहां के लोग भी उन्हें चोर समझ कर पीट भी देते है एवं गाली-गलौज भी करते हैं वो रोते हुए वहन से वापस होते हैं फिर उस मोहल्ले व गली में दुबारा नहीं जाते । इनमे से बहुत से ऐसे बच्चे भी हैं जो पढ़ना लिखना चाहते हैं जब हमारी टीम ने कबाड़ बिनने वाले बच्चों से यह पूछा कि क्या वे पढ़ना-लिखना नही चाहते तो उन्होंने जो जवाब दिया वह हैरान करने वाला था ये बच्चे पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहते हैं देश का नाम रौशन करना चाहते हैं लेकिन वे ऐसा सोच कर कर ही क्या सकते है ? इस कथन से उनकी विवशता का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
ऐसा भी नहीं है की यदि सरकर और समाजसेवी या यूँ कहें की सामाजिक एवं प्रशासनिक प्रयास से इन ननिहालों की जिंदगी सँवारी नहीं जा सकती नाजुक उम्र में ही ये बच्चे बीड़ी, सिगरेट एवं गुटखे आदि का भी सेवन करने लगते हैं एवं छोटी उम्र में वे बड़े-बड़े सपने देखने लगते हैं जब उनके सपने पूरे नहीं होते हैं तो ये जाने-अनजाने में स्थानीय असामाजिक तत्वों के चंगुल में फंसकर अपना जीवन भी बर्बाद कर लेते हैं और इन्हीं में से कुछ आगे चलकर अपराधी भी बन जाते हैं। स्थानीय स्तर पर सामाजिक एवं प्रशासनिक प्रयास से देश के इस भविष्य को अंधकारमय होने से बचाया जा सकता है यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस देश की सरकार बच्चों के लिए समय-समय पर अनिवार्य शिक्षा कानून बनाती है, उसी देश में बच्चे कबाड़ बिनने के लिए विवश दिखाई देते है। यह हम सबके लिए भी बेहद ही शर्मनाक है इसमें सामाजिक संगठनों को भी इस बुराई को दूर करने के लिए आगे आना चाहिए एवं देश व प्रदेश की सरकारों को भी कारगर पहल करनी चाहिए जिससे इन ननिहालों का जीवन सुचारु व्यवस्था की राह पर चले जाएं तभी सच्ची आजादी का पर्व मना पाएंगे
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