20 साल में 420 से 5000: प्रशासन की अनदेखी
करीब 15-20 साल पहले हुए एक सरकारी सर्वे में रीवा जिले में 420 अवैध चिकित्सक चिन्हित किए गए थे। यह संख्या तत्कालीन समय में भी चिंता का विषय थी। लेकिन आज हालत यह है कि जिले के शहरी और ग्रामीण इलाकों को मिलाकर इनकी संख्या 5,000 से अधिक हो चुकी है। स्वास्थ्य विभाग के पास न तो इनकी अद्यतन सूची है और न ही इनके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई का रिकॉर्ड। यह सवाल उठता है कि आखिर इतने वर्षों में यह नेटवर्क इतनी तेजी से कैसे बढ़ा? यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि इस धंधे को रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए गए।
सुनियोजित तरीका: गांव में क्लीनिक, शहर में बोर्ड
इन फर्जी डॉक्टरों का काम करने का तरीका बेहद सुनियोजित है। ये गांवों में किराए के मकान या दुकान में क्लीनिक खोलते हैं। बाहर बड़े-बड़े बोर्ड लगाए जाते हैं, जिन पर किसी नामी डॉक्टर का नाम या डिग्री लिखी होती है। मरीजों को झांसा देने के लिए महंगे स्टेथोस्कोप, नकली सर्टिफिकेट और सफेद कोट का इस्तेमाल किया जाता है। चौंकाने वाली बात यह है कि ये डॉक्टर अपनी विशेषज्ञता के बाहर भी इलाज करते हैं। दांत का डॉक्टर हार्ट की दवा लिख रहा है, हड्डी का डॉक्टर प्रसूति मरीज देख रहा है और फार्मासिस्ट ऑपरेशन तक कर रहे हैं। इनके गलत इलाज के कारण कई मरीज अपनी जान गंवा देते हैं, लेकिन इन पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
गरीबों की गाढ़ी कमाई पर डाका और स्वास्थ्य पर खतरा
गांव के गरीब किसान, मजदूर और बुजुर्ग इन फर्जी डॉक्टरों के पास इलाज के लिए पहुंचते हैं क्योंकि उन्हें नजदीक में कोई सरकारी स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिलती। साधारण बुखार, जुकाम या दर्द के मरीज से 2,000 से 4,000 रुपये तक वसूले जाते हैं। अनावश्यक बोतल, इंजेक्शन और महंगी जांचों के नाम पर बिल बढ़ाया जाता है। कई मरीज गलत दवा के कारण गंभीर स्थिति में पहुंच जाते हैं, लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है। चिकित्सकों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि इन फर्जी डॉक्टरों द्वारा दी गई दवाएं और इलाज मरीजों के स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं। गलत इलाज से फूड पॉइजनिंग, लीवर-किडनी की बीमारी, एलर्जी व बच्चों में गंभीर संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
स्वास्थ्य विभाग की चुप्पी: क्या यह मौन सहमति है?
स्वास्थ्य विभाग का तर्क है कि "गांव-गांव में घूमकर पकड़ना मुश्किल है"। लेकिन सवाल यह है कि जो क्लीनिक स्थायी रूप से खुले हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं होती? क्या ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर से लेकर जिला और संभाग स्तर तक के अधिकारियों की इस मौन में हिस्सेदारी है? सूत्र बताते हैं कि कुछ फर्जी डॉक्टर हर महीने "मासिक सुरक्षा शुल्क" देकर कार्रवाई से बचते हैं।
राजनीतिक संरक्षण: चुनावी फायदे का हथियार
यह अवैध चिकित्सा माफिया अब सिर्फ मरीजों को ही नहीं, बल्कि नेताओं को भी फायदा पहुंचा रहा है। चुनाव के समय ये अपने क्लीनिक और नेटवर्क का इस्तेमाल कर वोट दिलाने में मदद करते हैं। स्थानीय नेताओं की नजर में यह सिर्फ "इलाज करने वाला डॉक्टर" नहीं, बल्कि "चुनाव जिताने वाला कार्यकर्ता" बन चुका है। यही कारण है कि राजनीतिक संरक्षण के बिना इनका कारोबार सालों तक टिक नहीं सकता।
सरकार और उपमुख्यमंत्री के सामने सीधा सवाल
प्रदेश के उपमुख्यमंत्री, जो रीवा विधायक होने के साथ-साथ स्वास्थ्य मंत्रालय का प्रभार भी संभाल रहे हैं, क्या वे इस गोरखधंधे को खत्म करने की हिम्मत करेंगे? क्या वे खुफिया तंत्र से जांच कर यह सच्चाई सामने लाएंगे कि ग्रामीण इलाकों में गरीब मरीजों को कैसे लूटा जा रहा है? यह सिर्फ "फर्जी डॉक्टर" का मामला नहीं, बल्कि यह गरीबों के जीवन और मौत का सवाल है। सरकार और प्रशासन की चुप्पी इस लूट में बराबर की हिस्सेदार है। अगर जल्द कार्रवाई नहीं हुई, तो आने वाले वर्षों में यह नेटवर्क और खतरनाक रूप ले लेगा, और रीवा-मऊगंज क्षेत्र स्वास्थ्य आपदा का केंद्र बन जाएगा।