![]() |
"बेवा, तलाकशुदा और यतीम मुस्लिम औरतों के भरण पोषण का मसला" masla Aajtak24 News |
खंडवा - जदीद तहज़ीब ने कमाने के मामले में औरत और मर्द के बीच ना तो कोई फ़र्क किया है और ना ही किसी एक को पाबंद और जिम्मेदार ठहराया है। बल्कि औरत की फितरत को नज़र अंदाज़ करते हुए उसे बकायदा कमाने पर उभारा है और उसके लिए वही तालीम और तरबियत का इंतजाम किया है जो इंसान को कमाने के लिए तैयार करती है। (इस बात से खुद औरत को, फैमली सिस्टम को और समाज को क्या नुकसान पहुंचा है उस पर यहां बहस मकसद नहीं है) इसके मुकाबले में इस्लाम ने औरत और मर्द के कार्य क्षेत्र को उनकी जिस्मानी और जेहनी बनावट और फितरत की बुनियाद पर तय किया है और इसके लिए मर्द को कमाने का पाबंद किया है और औरत को कमाने की "जिम्मेदारी" से आजाद रखा है ताकि वो अपनी फितरत पर भी कायम रहे और घर की जिम्मेदारियों को सुकून के साथ अदा कर सके, जिससे फैमली सिस्टम मजबूत रह सके जो कि समाज की बुनियाद होता है। इस्लामी जीवन व्यवस्था में मर्द कानूनी तौर पर कमाने और अपने घर वालों का खर्च उठाने का जिम्मेदार है। एक औरत अगर बीवी है तो उसके भरण पोषण का जिम्मेदार उसका शौहर है, बेटी है तो उसका जिम्मेदार बाप है। अगर किसी औरत का शौहर मर गया तो उसके जिम्मेदार उसके बाप भाई बेटे होंगे और अगर किसी बच्ची का बाप मर गया तो उसके जिम्मेदार उसके भाई, दादा, चाचा मामू वगेरह खूनी रिश्तेदार होंगे। वो उसका खर्च उठाने से मना नहीं कर सकते वरना इस्लामी शासन में सजा के मुस्ताहिक होंगे। अगर एक औरत का कोई भी खूनी रिश्तेदार मर्द न होगा तो फिर इस्लामी गवर्मेंट की जिम्मेदारी है कि वो उसका भरण पोषण करे। अब एक प्रेक्टिकल सवाल ये है कि जहां इस्लामी गवर्मेंट न हो वहां ये मसला कैसे हल किया जाए? क्यूंकि जैसा हो रहा है कि बेवा, तलाकशुदा औरतों और यतीम लड़कियों की जिम्मेदारी उनके सगे रिश्तेदार नही उठा रहे हैं लिहाज़ा वो या तो दर दर की ठोकरें खा रही हैं या फिर जदीद तहज़ीब के मुताबिक़ अपनी शर्म हया, जिस्मानी और जेहनी फितरत को नजर अंदाज करते हुए और फैमली सिस्टम को कमज़ोर करते हुए कमाई के मैदान में उतर पड़ें। तो उसके हल के तौर पर बुनियादी और पहला काम तो ये होना चाहिए कि 1. उम्म्मत की इसलाह का काम किया जाए और लोगों के जेहन और फिक्र में इस्लाम को सिर्फ मजहब के बजाए "दीन" यानी मुकम्मल निज़ाम ए ज़िंदगी के तौर पर बैठाया जाए। उनकी तरबियत इस नहज पर की जाए कि सिर्फ नमाज़, रोज़ा, हज, जकात ही का हुक्म अल्लाह ने नही दिया है बल्कि विरासत में औरत का हक़ और बेवा, तलाकशुदा और यतीम बेटियों और बहनों की किफालत का भी हुक्म दिया है और इस तरह दीन को मुकम्मल फॉलो करना है उसमे तफरीक नहीं करना है। और फिर समाज में इस्लाम की उन वैल्यूज के लिए माइंड सेट करना है जिनमें किसी कुंवारे लड़के का किसी बेवा और तलाक़शुदा औरत से निकाह करना कोई ऐब और बुरी बात न समझी जाए बल्कि बेहतर और सवाब का काम समझा जाए और एक से ज्यादा निकाह (polygamy) को अच्छा और सवाब समझा जाए ताकि साहिबे हैसियत लोग बेवा और तलाकशुदा औरतों से निकाह कर उनकी किफालत का ज़िम्मा उठा सकें! इसके लिए खास तौर पर औरतों का माइंड सेट किया जाए कि इस्लाम के इस प्रोविजन में खुद औरत जात के लिए खैर और भलाई है, लिहाज़ा वो मुखालिफत के बजाए ईसार करना सीखें। 2. समाज में ज़कात के इज्तेमाई निज़ाम को क़ायम किया जाए ताकि अगर कहीं किसी औरत के रिश्तेदार उसकी मदद करने में आनाकानी कर रहे हैं या कोई रिश्तेदार मौजूद ही नहीं है तो ज़कात के निज़ाम से उसका वज़ीफा जारी हो सके। 3. ऐसी औरतों को खुद कफील बनाने के लिए उन्हें ऐसे रोजगार करने में मदद की जाए जो वो घर बैठे हुए या फिर हिजाब की हदों में रहकर कर सकें जिससे उनकी शर्म ओ हया, निस्वानियत और फितरत बरकार रह सके।