| गौ-सेवा की राह में 'अकेला' संघर्ष: रीवा के वैभव केसरवानी का समाज को आईना, "यदि गौ-सेवा बागी होना है, तो मैं बागी ही सही" Aajtak24 News |
रीवा - जब दुनिया पद, प्रतिष्ठा और पैसे की चकाचौंध में अपनी जड़ों और संस्कृति को भूलती जा रही है, वहीं रीवा जिले के डभौरा में एक 'गौ-पुत्र' समाज की उपेक्षा और षड्यंत्रों के बीच अपनी मातृभूमि की सेवा में डटा हुआ है। गौ-सेवक और बृजवासी गौ रक्षक सेना के प्रदेश संगठन मंत्री वैभव कुमार केसरवानी ने समाज और जनप्रतिनिधियों की उदासीनता पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए अपनी पीड़ा साझा की है।
निजी संसाधनों से अनवरत सेवा
वैभव केसरवानी और उनका पूरा परिवार पिछले कई वर्षों से बिना किसी बाहरी मदद या सरकारी अनुदान के अपने निजी संसाधनों से गौ-माता की सेवा कर रहा है। भूसा, चारा, पानी और बीमार गायों के लिए दवाओं का प्रबंध वे स्वयं और अपने परिवार के सहयोग से करते हैं। वैभव कहते हैं, "लोग अपने स्वार्थ में अंधे हो गए हैं। आज दुर्भाग्य है कि जिस गौ-माता को घर के अंदर होना चाहिए, वह सड़कों पर पॉलिथीन खाकर दम तोड़ रही है, और कुत्ता सोफे पर बैठ रहा है।"
समाज का परिहास और षड्यंत्र
वैभव ने अत्यंत भारी मन से बताया कि गौ-सेवा करने के कारण उन्हें समाज के एक तबके के विरोध और घृणा का सामना करना पड़ रहा है। उन पर कई तरह के लांछन लगाए जा रहे हैं और मनगढ़ंत षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। वे कहते हैं, "मैं समाज से मदद नहीं मांगता, बस इतना चाहता हूँ कि मेरी सेवा की राह में रोड़ा न अटकाएं। मैं आपका विरोधी हो सकता हूँ, लेकिन ये बेसहारा गौ-माता और दिव्यांग आपकी दुश्मन नहीं हैं।"
"गौ-माता को न्याय दिलाकर रहूँगा"
कड़ाके की ठंड में ठिठुरती और भूखी गौ-माता की स्थिति को देखकर वैभव विचलित हैं। उन्होंने पक्ष-विपक्ष और जनप्रतिनिधियों की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए कहा कि आज कोई भी इन निरीह प्राणियों के हक में बोलने को तैयार नहीं है क्योंकि यहाँ 'वोट' या 'मुनाफा' नहीं है। उन्होंने संकल्प लिया है कि वे गौ-माता को 'राष्ट्र माता' घोषित करवाने और बूचड़खानों को बंद करवाने के लिए अपना संघर्ष जारी रखेंगे।
वैभव की खुली चुनौती
भावुक होते हुए वैभव ने कहा, "मैंने आज तक गौ-सेवा के नाम पर किसी से एक रुपया नहीं लिया। यदि कोई यह सिद्ध कर दे तो मैं अपना सर कटवा लूँ।" उनका मानना है कि जब-जब धरती पर पाप बढ़ा है, विनाश निश्चित हुआ है। गौ-माता की हाय से बचना संभव नहीं है। वैभव केसरवानी का यह संघर्ष उन सभी के लिए एक तमाचा है जो धर्म की बातें तो करते हैं, लेकिन कर्म के वक्त पीछे हट जाते हैं। डभौरा का यह 'गौ-पुत्र' आज भले ही अकेला खड़ा महसूस कर रहा हो, लेकिन उनका संकल्प चट्टान की तरह मजबूत है।